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RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

Rajasthan Board RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

पठित पाठ्यांशेषु उपपद विभक्तीना प्रयोगः।
अभ्यास: 1

प्रश्न
अधोलिखितेषु वाक्येषु रेखांकित पदस्य विभक्तिं कारणं च लिखत(निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित पद की विभक्ति तथा उसका कारण लिखिए)

  1. “श्रम– स्वेदैः सदा अस्माभिः नवरूप– रचना विधेयाः।
  2. वयं शान्ति– शक्त्या हिंसा– दानवी सेनां जयामः।
  3. अस्ति कस्मिश्चित् प्रदेशे महान् न्यग्रोध पादपः।
  4. वृक्षविवरात् निष्क्रम्य कृष्णसर्पः तदपत्यानि भक्षयति।
  5. माम! मया सह ते प्रथमः स्नेहसंभाषः संजातः।
  6. वत्से! अलं रुदितेन। स्थिरा भव, इतः पन्थानमालोकय।
  7. अचिर प्रसूतया जनन्या विना मया वर्द्धितोऽसि।
  8. सख्यौ प्रति, हला! एषा द्वयोरपि वा हस्ते निक्षेपः।
  9. मार्गे– मार्गे शृंगाटके– शृंगाटके भेरीनादः। गृहे– गृहे शृंगारः।
  10. अथ महाराजः तस्य कृत्रिम कूर्च स्वहस्तेन उत्पाटितवान्।
  11. प्रविश जाते! प्रविश। तपोवनानि नामें अतिथिजनस्य स्वकं गेहम्।
  12. एवं स्वल्पकाले गच्छति राजस्थानस्य एको राजपुत्र आगच्छत्।
  13. वयं तुभ्यम् एकमपि अन्नस्य कणं न दास्यामः।
  14. तैः सह योद्धम् अर्जुनः श्रीकृष्णेन सहातिदूरं जगाम।
  15. तव पितरं विना नान्तं मे चिन्तायाः भविष्यति।

उत्तर:

  1. तृतीया विभक्तिः (कर्मवाच्ये तृतीया),
  2. तृतीया विभक्तिः (करणे तृतीया),
  3. सप्तमी विभक्तिः (अधिकरणे सप्तमी),
  4. पंचमी विभक्तिः (अपादाने पंचमी),
  5. तृतीया विभक्तिः (सह– योगे तृतीया),
  6. तृतीया विभक्तिः (अलं योगे तृतीया),
  7. तृतीया विभक्तिः (विना– योगे तृतीया),
  8. द्वितीया विभक्तिः (प्रति– योगे द्वितीया),
  9. सप्तमी विभक्तिः (अधिकरणे सप्तमी),
  10. प्रथमा विभक्तिः (प्रतिपदिकार्थे प्रथमा),
  11. षष्ठी विभक्तिः (सम्बन्धे षष्ठी),
  12. प्रथमा विभक्तिः (संख्यामात्रे प्रथमा),
  13. चतुर्थी विभक्तिः (सम्प्रदाने चतुर्थी),
  14. तृतीया विभक्तिः (सह– योगे तृतीया),
  15. द्वितीया विभक्तिः (विना– योगे द्वितीया)।

अभ्यास: 2
1. अधोलिखितेषु वाक्येषु रेखांकित– पदस्य विभक्ति कारणं च लिखत

  1. माणवकं पन्थानं पृच्छति।
  2. हरिः वैकुण्ठं पृच्छति।
  3. विद्यालयं प्रति गच्छति।
  4. अक्ष्णा काणः।
  5. अना अनुवाकोऽधीतः।
  6. हरये रोचते भक्तिः।
  7. भक्ताय धारयति मोक्षं हरिः।
  8. वृक्षात् पत्रं पतति।
  9. ब्रह्मणः प्रजा: प्रजायन्ते।
  10. यवेभ्यो गां वारयति।
  11. कृपणस्य कृतिः।
  12. मोक्षे इच्छति।
  13. गवां गोषु वा कृष्णा बहुक्षीरा।

उत्तर:

  1. प्रथमा, (वचन वाले प्रथमा)
  2. द्वितीया (अधि उपसर्ग पूर्वक ङीष् धातु के आधार की कर्म संज्ञा)
  3. द्वितीया (प्रति के योग में)
  4. तृतीया (विकार युक्त अंग में तृतीया)
  5. तृतीया (कर्म वाच्ये तृतीया)
  6. चतुर्थी (रुच् धातु के योग में चतुर्थी)
  7. चतुर्थी (धृ धातु के योग में चतुर्थी)
  8. पंचमी (ध्रुवमपायेऽपादानम्)
  9. पंचमी (जन् धातुः योग पंचमी)
  10. पंचमी (वारण धातु के योग पंचमी)
  11. षष्ठी (कतृकर्मणोः कृतिः)
  12. सप्तमी (विषय में बोधक शब्दों में सप्तमी)
  13. षष्ठी, सप्तमी (यतश्च निर्धारणय्)।

अभ्यास: 3

2. अधोलिखितेषु वाक्येषु रेखांकितपदे प्रयुक्त कारक– सूत्रं लिखत

  1. देवदत्तं शतं जयति।
  2. विष्णुः क्षीरसागरं अधितिष्ठति।
  3. पुत्रेण सहागता पिता।
  4. शिरसा खल्वाटः।
  5. दण्डेन यतिः।
  6. रामं विना नाहं जीवामि।
  7. बालिका पुष्पेभ्यः स्पृह्यति।
  8. प्रजाभ्यः स्वस्ति।
  9. चौरात् विभेति।
  10. शिष्यः उपाध्यायाद् अधीते।
  11. पापात् जुगुप्सते।
  12. बलरामस्य तुल्यः भीमः।
  13. गोषु दुह्यमानासु गत।
  14. साधु मातरि मातले वा।

उत्तर:

  1. द्वितीया (अकथितं च सूत्रेण जि धातुः योगे द्वितीया)
  2. द्वितीया (अधिशी स्वासां कर्म)
  3. तृतीया (सहयुक्तेप्रधाने)
  4. तृतीया (येनाङ्ग विकार:)
  5. तृतीया (इत्थं भूतलक्षणे)
  6. द्वितीया (विना योगे द्वितीया)
  7. चतुर्थी (स्पृहेरीप्सितः)
  8. चतुर्थी (स्वति योगे चतुर्थी)
  9. पंचमी (भीत्रार्थानां भयहेतु पंचमी)
  10. पंचमी (अधीतः धातु योगे पंचमी)
  11. पंचमी (जुगुप्सा धातुः योगे पंचमी)
  12. षष्ठी (तुल्यार्थे रतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्थाम्)
  13. सप्तमी (यस्य च भावेन भाव लक्षणम्)
  14. सप्तमी (साध्वसाधु प्रयोगे च)।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
अभ्यास: 4

प्रश्न
कोष्ठकाङ्कितपदे उचितविभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानं पूरयत। (कोष्ठक में लिखे पद में उचित विभक्ति लगाकर रिक्तस्थान की पूर्ति कीजिए।)

  1. भवतु! अलम् ……………………। (नाटक)
  2. किं …………………… किञ्चिदपराद्धम्। (भर्तृदारक)
  3. रामदत्तोऽपि …………………… अनुसरति। (तद्)
  4. रत्नापि …………………… सार्धमायाति। (दारक)
  5. ………………….. अतितरां स्निह्यत्यसौ। (अस्मद्)
  6. ………………….. साकं युद्धं कृतवान्। (हम्मीरदेव),
  7. सः …………………… अपि तीक्ष्णः। (पैठन)
  8. ………………….. स्व पुस्तक केन दत्तम्? (तद्)
  9. सेः …………………… अपि रोचते। (अस्मद्)
  10. …………………… साकं मैत्रीवर्धनस्य न काप्यावश्यकता। (सोमधर)
  11. अलं …………………… (भिषगावान)
  12. सहर्ष …………………… प्रति। (रत्ना)
  13. किं तस्य …………………… वा? (जीवित)
  14. पराक्रमं कुर्वाणः ……………………। नि:सृत्य युद्धरतोऽभवत्। (दुर्ग)
  15. …………………… अपि कमलं विकसति। (पङ्क)

उत्तर:

  1. नाटकेन
  2. भर्तृदारकेण
  3. तम्
  4. दारकेण
  5. मयि
  6. हम्मीरदेवेन
  7. पठने
  8. तस्मै
  9. मह्यम्
  10. सोमधरेण
  11. भिषगावानेन
  12. रत्नाम्
  13. जीवितेन
  14. दुर्गात्
  15. पङ्के।

अभ्यास: 5
प्रश्न
अधोलिखितपदानां संस्कृत वाक्येषु प्रयोगं कुरुत (निम्नलिखित शब्दों का संस्कृत– वाक्यों में प्रयोग कीजिए–) प्रति, उद्घाटितम्, सह, करणीया, अलम्, बहिः, कर्तव्यः, साकम्, किम्, नीता, मग्नः, जायते, सम्भवति, अन्तरेण, याचते।
उत्तर:

  1. प्रति– श्रगालः ग्राम प्रति धावति। (गीदड़ गाँव की ओर दौड़ता है।)
  2. उद्घाटितम्– अद्यं त्वया मम नेत्रयुगलम् उद्घाटितम्। (आज तुमने मेरी आँखें खोल दीं।)
  3. सह– रामेण सह सीतापि वनमगच्छत्। (राम के साथ सीता भी वन को गई।)
  4. करणीया– सज्जापि मया एव करणीया। (सजावट भी मुझे ही करनी है।)
  5. अलम्– अलं विवादेन। (विवाद मत करो।)
  6. वहिः– सः दुर्गाद् बहिरागच्छत्। (वह दुर्ग से बाहर आ गया।)
  7. कर्तव्यः– मया एव सर्वप्रथमं खड्गप्रहारः कर्त्तव्यः। (मुझे ही सबसे पहले तलवार का प्रहार करना चाहिए।)
  8. साकम्– दुर्गद्वारमागत्य हम्मीरदेवेन साकं युद्धं कृतवान्। (दुर्ग के द्वार पर आकर हम्मीरदेव के साथ युद्ध किया।)
  9. किम्– किम् मम एतया मृत्तिका शकटिकया? (मुझे इस मिट्टी की गाड़ी से क्या प्रयोजन?)।
  10. नीता– तेन श्रेष्ठिपुत्रेण सा स्वर्णशकटिका नीता। (वह सेठ का बेटा उस सोने की गाड़ी को ले गया।)
  11. ‘मग्नः– सः ध्याने मग्नः मां नापश्यत्। (ध्यान में डूबे हुए उसने मुझे नहीं देखा।)
  12. जायते– जलात् जायते जलजः। (कमल पानी से पैदा होता है।)
  13. सम्भवति– अन्नं पर्जन्यात् सम्भवति। (अन्न वृष्टि से होता है।)
  14. अन्तरेण– न सुखं धनमन्तरेण। (धन के बिना सुख नहीं।)
  15. याचते– रामदत्तः मां पुस्तकं याचते। (रामदत्त मुझसे पुस्तक माँगता है।)

अभ्यास: 6

प्रश्न
स्थूलपदेषु विभक्तिनिर्देशं कृत्वा कारणमपि लिखते। (स्थूल शब्दों में विभक्ति बताते हुए कारण बताइये।)
प्रश्न 1.
महत्सु शृगेषु महीधराणां विश्रम्य प्रयाति।
उत्तर:
सप्तमी बहुवचनम्। अधिकरणे सप्तमी।

प्रश्न 2.
स्वेषाम् अपत्यानाम् उपरि सौहार्दत्वात् अनुग्रहं चकारः।
उत्तर:
षष्ठी– बहुवचनम्। उपरि शब्दस्य योगे षष्ठी विभक्ति।

प्रश्न 3.
अनुकृतम् अनेन पितुः रूपम्।
उत्तर:
तृतीयाः एकवचनम्। कर्मवाच्ये कर्तरि तृतीया।

प्रश्न 4.
मया इयं मृत्तिकाशकटिका दत्ता।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। कर्मवाच्ये कर्तरि तृतीया।

प्रश्न 5.
धिङ् मूर्खान्।
उत्तर:
द्वितीया– बहुवचनम्। धिक् योगे द्वितीया।

प्रश्न 6.
मुग्धेन मुखेन अति करुणं मन्त्रयति।
उत्तर:
तृतीया एकवचनम्। करणे तृतीया।

प्रश्न 7.
हम्मीरदेवेन साकं युद्धं कृतवान्।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। सहयुक्तेऽप्रधाने तृतीया।

प्रश्न 8.
हम्मीरदेवं प्रति दूतः प्रहितः।
उत्तर:
द्वितीया– एकवचनम्। प्रति’ योगे द्वितीया।

प्रश्न 9.
महिमासाहिना सह त्वामन्तकपुरं नेष्यामि।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। सहयुक्तेऽप्रधाने तृतीया।

प्रश्न 10.
सर्वे दुर्गाद् बहिः स्थानान्तरं गच्छत।
उत्तर:
पञ्चमी– एकवचनम्। बहिर्योगे पंचमी।

प्रश्न 11.
अधिवक्तुः पत्नी रत्ना अपि दारकेण सार्धम् आयाति।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। सहयुक्तेऽप्रधाने तृतीया।

प्रश्न 12.
सोमधर: मम सुहृदस्ति।
उत्तर:
षष्ठी एकवचनम्। सम्बन्धे षष्ठी।

प्रश्न 13.
सोमधरेण सार्क मैत्री वर्धनस्य न काप्यावश्यकता।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। सहयुक्तेऽप्रधाने तृतीया।

प्रश्न 14.
त्वया सख्यमेव कस्मात् कृतम्।
उत्तर:
तृतीया– एकवचनम्। कर्मवाच्ये कर्तरि तृतीया।

कारकों (विभक्तियों) का प्रयोग पदों का समूह वाक्य कहा जाता है। वाक्य इच्छित अर्थ का बोध कराता है। क्रिया की अन्विति जो करता है अर्थात् क्रिया को जो करता है अथवा क्रिया के साथ जिसका सीधा अथवा परम्परा से सम्बन्ध होता है वहे ‘कारक’ कहा जाता है। कारक छ: हैं– कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण।

क्रिया के साथ कारकों को साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध कैसे होता है? यह समझने के लिए यहाँ एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसे–

हे मनुष्याः! नरदेवस्य पुत्रः जयदेवः स्वहस्तेन कोषात् निर्धनेभ्यः ग्रामे धनं ददाति।” (हे मनुष्यो! नरदेव का पुत्र जयदेव अपने हाथ से खजाने से निर्धनों के लिए गाँव में धन (को) देता है।)

यहाँ क्रिया के साथ कारकों का सम्बन्ध इस प्रकार प्रश्नोत्तर से जानना चाहिए–
RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम् 1

इस प्रकार यहाँ ‘जयदेव’ इस कर्ता कारक का तो क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध है और अन्य कारकों का परम्परा से सम्बन्ध है, इसलिए ये सभी कारक कहे जाते हैं। किन्तु इसी वाक्य में ‘हे मनुष्या: और ‘नरदेवस्य’ इन दो पदों का ‘ददाति’ क्रिया के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध नहीं है, इसलिए ये दो पद कारक नहीं हैं। ‘सम्बन्ध’ कारक तो नहीं होता है, परन्तु उसमें षष्ठी विभक्ति होती है। अतः कारक एवं विभक्ति में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी ये अलग– अलग हैं।

कारकाणां संख्या–
इत्थं कारकाणां संख्या षड् भवति। यथोक्तम्
कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानाधिकरणमित्याहुः कारकाणिषट्।

(इस प्रकार कारकों की संख्या छः होती है। जैसा कि कहा है– कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण– ये छः कारक कहे गये हैं।)

ध्यातव्य– संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं। सम्बोधन विभक्ति को प्रथमा विभक्ति के ही अन्तर्गत गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना गया है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अतः ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं तथा विभक्तियाँ सात होती हैं। कारकों में प्रयुक्त विभक्तियों तथा उनके चिह्नों का विवरण इस प्रकार है–
RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम् 2
RBSE Class 11 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम् 3

  1. कर्ता– ‘स्वतन्त्रः कर्ता’– अर्थात् जो क्रियों के करने में स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता कहा जाता है।
  2. कर्म– कर्तुरीप्सिततमं कर्म’ कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कहते हैं।
  3. करणम्– ‘साधकतमं करणम्’– क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक होता है, उस कारक की करण संज्ञा होती है।
  4. सम्प्रदानम्– ‘कर्मणा यमभिप्रेति सः सम्प्रदानम्’ अर्थात् जिसको कोई वस्तु दी जाती है वह सम्प्रदान कहलाता है।
  5. अपादानम्– ‘ध्रुवमपायेऽदानम्’– अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति के अलग होने में जो कारक स्थिर होता है अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है।
  6. अधिकरणम्– ‘आधारोऽधिकरणम्’ अर्थात् जिस वस्तु अथवा स्थान पर कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है।

प्रथमा विभक्ति
सूत्र– प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा। अर्थात्– प्रातिपदिक का अर्थ बतलाने में, लिङ्ग का ज्ञान कराने में, परिमाण का बोध कराने में और वचन की जानकारी कराने में प्रथमा विभक्ति आती है।

(i) प्रातिपदिकार्थ में– किसी पद (शब्द) के उच्चारण करने पर जिस अर्थ की निश्चित जानकारी होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। अर्थात् जाति और व्यक्ति की प्रतीति जिससे होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। उदाहरण–ार्थ– कृष्णः, श्रीः, ज्ञानम् आदि पद प्रातिपदिकार्थ रूप में प्रयुक्त हुए हैं, अतः इनमें प्रथमा विभक्ति है।
(ii) लिंग मात्र में किसी पद में लिंग बतलाने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग करते हैं। जैसे– तटः, तटी, तटम्। यहाँ ये तीनों पद क्रमशः पुल्लिग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग का ज्ञान करा रहे हैं। अतः इन तीनों में प्रथमा विभक्ति है।
(iii) परिमाण मात्र में– नाप या भार का बोध कराने के लिए भी प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे– द्रोण: (तोलने का एक बाँट), आढकम् (एक तोल विशेष) आदि में प्रथमा विभक्ति है।
(iv) वचन मात्र में– एकवचन, द्विवचन और बहुवचन का ज्ञान कराने हेतु भी प्रथमा विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे– एकः द्वौ, बहवः, क्रमशः एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन में हैं तथा प्रथमा विभक्ति में हैं।

उदाहरण–

  • सर्वे जनाः किं पश्यन्ति? – सभी लोग क्या देखते हैं?
  • प्रयागः एकं तीर्थस्थानम् अस्ति। – प्रयाग एक तीर्थ– स्थान है।
  • अर्जुनः एकः महान् धनुर्धरः आसीत्। – अर्जुन एक महान् धनुर्धर था।
  • मोहन: वाराणसीम् अगच्छत्। – मोहन वाराणसी गया।
  • यः धावति सः पतति। – जो दौड़ती है वह गिरता है।
  • सा बालिका पठति। – वह लड़की पढ़ती है।
  • भवन्तः कुत्र गमिष्यन्ति? – आप लोग कहाँ जायेंगे?
  • ते सर्वे तत्र न गमिष्यन्ति। – वे सब वहाँ नहीं जायेंगे।
  • छात्राः पठन्ति। – छात्र पढ़ते हैं।
  • सः पुरुषः कः अस्ति? – वह पुरुष कौन है?
  • कः बालकः धावति? – कौन बालक दौड़ता है?

(v) अभिधेयमात्रे प्रथमा– अभिधेय का अर्थ है नाम। – केवल नाम व्यक्त करना हो तो उसमें प्रथमा विभक्ति लगती है। जैसे– रामः, कृष्णः, गजः, देवः। यहाँ ये चारों पद (शब्द) नाम हैं अतः इनमें प्रथमा विभक्ति है।
(vi) अव्यययोगे प्रथमा– अव्यय शब्दों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे– कृष्णः इति सखा अस्ति। (‘कृष्ण’ यह (नामवाला) मित्र है)। यहाँ ‘इति’ अव्यय शब्द से पूर्व वाले ‘कृष्णः’ पद (शब्द) में ‘इति’ अव्यय शब्द के योग के कारण प्रथमा विभक्ति है।
(vii) सम्बोधने प्रथमा– सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे– हे कृष्ण! यहाँ ‘हे कृष्ण!’ में सम्बोधन विभक्ति (प्रथमा विभक्ति) है।
(viii) प्रयोजके कर्तरि प्रथमा– प्रयोजक कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे– पिता पुत्रं मेघं दर्शयति। यहाँ प्रयोजक कर्ता ‘पिता’ पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति है।
(ix) उक्ते कर्मणि प्रथमा– कर्मवाच्य के वाक्य में कर्म कारक में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे– मया कृष्णः दृश्यते। (मेरे द्वारा कृष्ण को देखा जा रहा है) यहाँ कर्म कारक ‘कृष्णः’ पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति लगी है।

द्वितीया विभक्तिः (कर्मकारकस्य प्रयोगः)
कर्म कारक की परिभाषा– “कर्तुरीप्सिततमं कर्म” कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं। जैसे– – मोहन: चित्रं पश्यति। (मोहन चित्र को देखता है) यहाँ ‘चित्रम्’ कर्म कारक है, क्योंकि कर्ता ‘मोहन’ के द्वारा इसका देखना चाहा जा रहा है। अत: ‘चित्रम्’ में द्वितीया विभक्ति है।
1. कर्मणि द्वितीया– कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे– सा पुस्तकं पठति। (वह पुस्तक पढ़ती है।) यहाँ ‘पुस्तक’ शब्द ‘पठति’ क्रिया का कर्म है, अतः ‘पुस्तकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है।

अन्य उदाहरण–

  • राम: ग्रामं गच्छति। (राम गाँव को जाता है।) यहाँ ‘गच्छति’ क्रिया का कर्म ‘ग्रामम्’ है, अत: ‘ग्रामम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
  • बालकाः वेदं पठन्ति। (बालक वेद को पढ़ते हैं।) यहाँ ‘पठन्ति’ क्रिया को कर्म, ‘वेद’ है, अत: ‘वेदम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
  • वयं नाटकं द्रक्ष्यामः। (हम सब नाटक को देखेंगे।) यहाँ ‘द्रक्ष्याम:’ क्रिया का कर्म ‘नाटक’ है, अतः ‘नाटकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
  • साधुः तपस्याम् अकरोत्। (साधु ने तपस्या की।) यहाँ ‘तपस्याम्’ शब्द ‘अकरोत्’ क्रिया का कर्म है, अत: ‘तपस्याम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
  • सन्दीपः सत्यं वदेत्। (संदीप को सत्य बोलना चाहिए।) यहाँ ‘वदेत्’ क्रिया का कर्म ‘सत्यं’ है। अत: ‘सत्यं’ में द्वितीया विभक्ति हुई।

2. तथायुक्त अनीप्सितम्– कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सिततम कहते हैं और जिसक इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित (अनिच्छित) पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे– ‘दिनेशः विद्यालयं गच्छन्, बालकं पश्यति’ (दिनेश विद्यालय जाते हुए, बालक को देखता है) इस वाक्य में ‘बालकं’ अनीप्सित पदार्थ है, फिर भी ‘विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

3. अकथितं च सूत्र से निम्न सोलह धातुओं तथा इन अर्थों की अन्य धातुओं के होने पर इनके साथ दो कर्म होते हैं, अतः दोनों में द्वितीया विभक्ति ही लगायी जाती है।
जैसे–

  1. दुह (दुहना),
  2. याच् अथवा भिक्षु (माँगना),
  3. पच् (पकाना),
  4. दण्ड् (दण्ड देना),
  5. रुध् (रोकना),
  6. प्रच्छ् (पूछना),
  7. चि (चुनना),
  8. ब्रू अथवा भाष् (बोलना),
  9. शास् (बताना),
  10. जि (जीतना),
  11. मथ् (मथना),
  12. मुष अथवा चुर् (चुराना),
  13. नी (ले जाना),
  14. हृ (हरण करना),
  15. कृष् (खींचना),
  16. वह् (ढोना या ले जाना)।

ये सोलह द्विकर्मक (दो कर्मों वाली) क्रियाएँ हैं। इनके उदाहरण– निम्नवत् हैं

  1. कृषक: अजां दुग्धं दोग्धि। – (किसान बकरी का दूध दुहता है।)
  2. सेवकः नृपं क्षमा याचते भिक्षते वा। – (सेवक राजा से क्षमा माँगता है।)
  3. पाचकः तण्डुलान् ओदनं पचति। – (रसोइया चावलों से भात पकाता है।)
  4. नृपः दुर्जनं शतं दण्डयति। – (राजा दुर्जन पर सौ रुपये दण्ड लगाता है।)
  5. कृष्णः ब्रजं गां रुणद्धि। – (कृष्ण ब्रज में गाय को रोकता है।)
  6. शिष्यः गुरु धर्मं पृच्छति। – (शिष्य गुरु से धर्म को पूछता है।)
  7. मालाकारः लतां पुष्पाणि चिनोति। – (माली लता से फूलों को चुनता है।)
  8. शिक्षकः छात्रं धर्मं ब्रूते भाषते वा। – (शिक्षक छात्र से धर्म कहता है।)
  9. जनकः पुत्रं धर्म शास्ति। – (पिता पुत्र को धर्म बताता है।)
  10. मोहनः रामं शतं जयति। – (मोहन राम से सौ रुपये जीतता है।)
  11. हरिः सागरं सुधां मथ्नाति। – (हरि समुद्र से अमृत मथता है।)
  12. रामः देवदत्तं शतं मुष्णाति चोरयति वा। – (राम देवदत्त के सौ रुपये चुराता है।)
  13. कृषक: ग्रामम् अजां नयति। – (किसान गाँव में बकरी ले जाता है।)
  14. नरा: वसुधां रत्नानि कर्षन्ति। – (लोग जमीन से रत्न खोदते हैं। निकालते हैं)
  15. कृषक: भारं ग्रामं कर्षति। – (किसान बोझा गाँव ले जाता है।)
  16. कृषक: भारं ग्रामं वहति। – (किसान भार को गाँव ले जाता है।)

[नोट– यहाँ ऊपर दिये गये वाक्यों में गहरे काले पदों में (शब्दों में) कर्म कारक होने के कारण द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

द्वितीया उपपद विभक्ति
1. ‘अधिशीङस्थासां कर्म’ – इस सूत्र के अनुसार अधि उपसर्गपूर्वक शीङ (सोना), स्था (ठहरना) एवं आस् (बैठना) धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है। अर्थात् सप्तमी विभक्ति के अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे– हरिः बैकुण्ठम् अधिशेते। (हरि बैकुण्ठ में सोते हैं।) यहाँ बैकुण्ठ में सप्तमी विभक्ति न होकर उक्त अधि उपसर्ग के प्रयोग के कारण द्वितीया विभक्ति हुई है।
2. उभयतः (दोनों ओर), सर्वतः (सभी ओर या चारों ओर), धिक् (धिक्कार है), उपर्युपरि (उपरि + उपरि = ऊपर– ऊपर), अध्यधि (अधि + अधि = अन्दर– अन्दर) और अधोऽध: (अध: + अधः = नीचे– नीचे) इन शब्दों का योग होने पर द्वितीया विभक्ति ही होती है।

जैसे–

  • कृष्णम् उभयतः गोपाः सन्ति। – (कृष्ण के दोनों ओर ग्वाले हैं।)
  • ग्रामं सर्वतः जलम् अस्ति। – (गाँव के सब ओर जल है।)
  • दुर्जनं धिक्। – (दुर्जन को धिक्कार है।)
  • हरिः लोकम् उपर्युपरि अस्ति। – (हरि संसार के ऊपर– ऊपर हैं।)
  • हरिः लोकम् अध्यधि वर्तते। – (हरि संसार के अन्दर– अन्दर हैं।)
  • पातालः लोकम् अधोऽधः वर्तते। – (पाताल संसार के नीचे– नीचे है।)

3. अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि– इस वार्तिक के अनुसार अभितः (दोनों ओर), परितः (चारों ओर), समया (समीप में), निकषा (समीप में), हा (अफसोस) तथा प्रति (ओर) का योग होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  1. प्रयागम् अभितः नद्यौ स्तः। – (प्रयाग के दोनों ओर नदियाँ हैं।)
  2. ग्रामं समया विद्यालयोऽस्ति। – (गाँव के समीप में विद्यालय है।)
  3. ग्रामं परितः जलम् अस्ति। – (गाँव के चारों ओर जल है।)
  4. विद्यालयः ग्रामं निकषा अस्ति। – (विद्यालय गाँव के समीप है।)
  5. हा शठम्। – (शठ के प्रति अफसोस है।)
  6. बालकः विद्यालयं प्रति गच्छति। – (बालक विद्यालय की ओर जाता है।)

4. गत्यर्थक अर्थात् गति (चलना, हिलना, जाना) अर्थ वाली क्रियाओं के साथ द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • रामः ग्रामं गच्छति – (राम गाँव को जाता है।)
  • सिंहः वनं विचरति। – (सिंह वन में विचरण करता है।)
  • सः स्मृति गच्छति – (वह स्मृति को प्राप्त करता है।)
  • से परं विषादम् अगच्छत्। – (वह परम विषाद को प्राप्त हुआ।)

5. अन्तराऽन्तरेण युक्ते– अर्थात् अन्तरा (बीच या मध्य में), अन्तरेण (बिना) और (विना) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे–

  • त्वां मां च अन्तरा रामोऽस्ति। – (तुम्हारे और मेरे मध्य में राम है।)
  • रामम् अन्तरेण न गतिः। – (राम के बिना कल्याण नहीं।)
  • ज्ञानं विना न सुखम्। – (ज्ञान के बिना सुख नहीं।)

6. ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे’ अर्थात् अत्यन्त संयोग हो और कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों का प्रयोग हो तो। कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति आती है।
जैसे–

  1. राम: मासम् अधीते पठति वा। – (राम महीने भर पढ़ता है।)
  2. इयं नदी क्रोशं कुटिला अस्ति। – (यह नदी कोस भर तक टेढ़ी है।)
  3. सः क्रोशं पुस्तकं पठति अधीते वा। – (वह कोस भर तक पुस्तक पढ़ता है।)
  4. सः दश दिनानि लिखति। – (वह दस दिनों तक लिखता है)।

7. ‘उपान्वध्यावसः’ अर्थात् वसु धातु से पहले उप, अनु, अधि और आ उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग लगा हो, तो वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा हो जाती है अर्थात् सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ही लगती है।
जैसे–

  • हरिः बैकुण्ठम् उपवसति।
  • हरिः बैकुण्ठम् अनुवसति।
  • हरिः बैकुण्ठम् अधिवसति।
  • हरिः बैकुण्ठम् आवसति। अर्थात् हरि बैकुण्ठ में निवास करता है।

8. अनु, उप, प्रति, परि, अभि, अधि, सु, अति, अपि, अप, आङ इनकी विशेष अर्थ में कर्म प्रवचनीय संज्ञा होती है। कर्म प्रवचनीय में द्वितीया विभक्ति होती है।

तृतीया विभक्ति
करण कारक की परिभाषा– ‘साधकतमं कारणम्’ अर्थात् क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक होता है, उस कारक की कारण संज्ञा होती है।
यथा–

1. जागृतिः कमलेन लिखति। (यहाँ क्रिया ‘लिखति’ में सर्वाधिक सहायक ‘कलम’ है, अत: ‘कलमेन’ में तृतीया हुई।)।
2. वैशाली जलेन मुखं प्रक्षालयति। यहाँ ‘प्रक्षालयति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक जल है, अतः ‘जलेन’ में तृतीया हुई।)
3. रामः दुग्धेन रोटिकां खादति। (यहाँ ‘खादति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक ‘दुग्ध’ है, अत: ‘दुग्धेन’ में तृतीया हुई।)
4. सुरेन्द्रः पादाभ्यां चलति। (यहाँ ‘चलति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक ‘पादौ’ हैं अत: ‘पादाभ्यां’ में तृतीया हुई।)

‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ अर्थात् उक्त करण कारक में तथा कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के कर्ता कारक में तृतीया विभक्ति आती है। जैसे–
1. रामः कलमेन लिखति। (राम कलम से लिखता है।) यहाँ कर्तृवाच्य वाक्य के करण कारक ‘कलम’ में तृतीया विभक्ति है। यहाँ कलम लिखने की क्रिया में सहायक है। अतः कलम करण कारक हुआ और इसी कारण ‘कलम’ में तृतीया विभक्ति आयी है।
2. मया पुस्तक पठ्यते। (मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है।)
यह कर्मवाच्य का वाक्य है, अतः कर्ता ‘मया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।
3. शीलया सुप्यते। (शीला के द्वारा सोया जाता है।)
यह भाववाच्य का वाक्य है, अतः कर्ता ‘शीलया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।
4. ममतया भोजनं पच्यते। (ममता के द्वारा भोजन पकाया जाता है।)
यह भाववाच्य का वाक्य है। अतः कर्ता ‘ममतया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

तृतीया उपपद विभक्ति
1. ‘सहयुक्तेऽप्रधाने’ – अर्थात् सह (साथ), साकं (साथ), समं (साथ) और सार्धं (साथ) के योग में अप्रधान (कर्ता का साथ देने वाले) में तृतीया विभक्ति आती है।
जैसे–
सीता रामेण सह गच्छति। (सीता राम के साथ जाती है।)
यहाँ प्रधान कर्ता सीता है और राम अप्रधान है, अतः सह का योग होने के कारण ‘राम’ में तृतीया विभक्ति हुई है।

2. येनाङ्ग विकारः– शरीर के जिस अंग में विकार हो उस विकार युक्त अंग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • कर्णेन बधिरः। – (कान से बहरा है।)
  • पादेन खञ्जः। – (पैर से लँगड़ा है।)
  • हस्तेन लुञ्जरः। – (हाथ से लूला है।)

3. ‘इत्थं भूतलक्षणे’ अर्थात् जिस लक्षण या चिह्न विशेष से किसी वस्तु या व्यक्ति का बोध होता है, उसमें तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
जैसे–

  • जटाभिः तापस: प्रतीयते। – (जटाओं से तपस्वी प्रतीत होता है।)
  • दण्डेन यतिः ज्ञायते। – (दण्ड से यति मालूम होता है।)
  • स्वरेण रामभद्रम् अनुहरति। – (स्वर से राम के समान है।)

4. अपवर्गे तृतीया’– अर्थात् फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि का बोध कराने के लिए समयवाची तथा मार्गवाची शब्दों में अत्यन्त संयोग होने पर तृतीया विभक्ति होती है। यहाँ अपवर्ग का अर्थ फल की प्राप्ति है।
जैसे–

  • मासेन शास्त्रम् अधीतवान्। – (महीने भर में शास्त्र पढ़ लिया।)
  • क्रोशेन पुस्तकं पठितवान्। – (कोस भर में पुस्तक पढ़ ली।)
  • सप्तभिः दिनैः रचितवान्। – (सात दिनों में रच लिया।)

5. पृथग्विनानागिभस्तृतीयान्यतरस्याम्– अर्थात् पृथक, विना, नाना शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति, द्वितीया विभक्ति और पञ्चमी विभक्ति होती है, जैसे– दशरथः रामेण/रामात्/रामं वा विना/पृथक्/नाना प्राणान् अत्यजत्।

(पाठ्यक्रम के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण नियम)
6. ‘प्रकृत्यादिभिः उपसंख्यानम्’– अर्थात् प्रकृति, प्रायः, गोत्र आदि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • रामः प्रकृत्या दयालुः। – (राम प्रकृति से दयालु है।)
  • सोमदत्तः प्रायेण याज्ञिकोऽस्ति। – (सोमदत्त प्रायः याज्ञिक है।)
  • संः गोत्रेण गाग्र्योऽस्ति। – (वह गोत्र से गार्य है।)
  • सः सुखेन जीवति। – (वह सुख से जीता है।)
  • सः दुःखेन याति। – (वह दु:ख से जाता है।)
  • सिंहः स्वभावेन मनस्वी भवति। – (सिंह स्वभाव से मनस्वी होता है।)

7. कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा उपयोगिता को प्रकट करने वाले अन्य पदों के योग में भी उपयोग में आने वाली वस्तु में इसी नियम से तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • धनेन किं प्रयोजनम्? – (धन से क्या प्रयोजन?)
  • कोऽर्थः पुत्रेण जातेन? – (पुत्र के उत्पन्न होने से क्या अर्थ?)
  • मूर्खण पुत्रेण किम्? – (मूर्ख पुत्र से क्या लाभ?)

8. तुल्य, सम और सदृश शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया और षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं। तुल्य, सदृश और सम तीनों शब्दों का अर्थ ‘समान’ है।
जैसे–

  • कृष्णेन/कृष्णस्य वा तुल्यः। – (कृष्ण के समान)।
  • सत्येन/सत्यस्य वा समः। – (सत्य के समान)।
  • रामेण/रामस्य वा सदृशः। – (राम के समान)।

9. हेतौ– हेतु अर्थात् कारण वाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • रमेश: अध्ययनेन नगरे वसति। – (रमेश अध्ययन हेतु नगर में रहता है।)
  • विद्यया यशः भवति। – (विद्या के द्वारा/के कारण यश होता है।

10. ऊन (कम), हीन (रहित), अलम् (बसे या मना के अर्थ में) तथा किम् आदि न्यूनतावाचक और निषेधवाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • अलं विवादेन। – (विवाद बन्द करो।)
  • विद्यया हीनः जनः पशुः। – (विद्या से हीन मनुष्य पशु है।)
  • एकेन ऊनः। – (एक कम)
  • कलहेन किम्। – (कलह करना व्यर्थ है।)

11. किम्, अपि, प्रयोजनं, अर्थः, लाभः आदि के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे–

  • धनेन किं भवति? – (धन क्या होता है?)
  • सद्व्यवहारेण अपि यशः भवति। – (सद्व्यवहार से भी यश होता है।)
  • अत्र मोदकैः प्रयोजनं न अस्ति। – (यहाँ लड्डुओं से प्रयोजन नहीं है।)
  • अधार्मिकः पुत्रेण कः अर्थः? – (अधार्मिक पुत्र से क्या लाभ है?)
  • अन्धस्य दीपेन कः लाभ:? – (अन्धे के लिए दीपक से क्या लाभ है?)

12. सुख, दुःख, प्रकृति, प्रायः के योग में तृतीया विभक्ति होती है।

  • सज्जनाः सुखेन जीवन्ति। – (सज्जन सुख से जीते हैं।)
  • अस्मिन् संसारे सर्वेः दुःखेन जीवनं यापयन्ति। – (इस संसार में सब दु:ख से जीवन बिताते हैं।)
  • कोमलः प्रकृत्या/स्वभावेन साधुः भवति। – (कोमल प्रकृति/स्वभाव से साधु होता है।)
  • स प्रायेण यज्ञं करोति। – (वह प्रायः यज्ञ करता है।)

चतुर्थी विभक्ति
1. ‘कर्मणा यमभिप्रेति सः सम्प्रदानम्’ अर्थात् जिसको कोई वस्तु दी जाती है, वह सम्प्रदान कहलाता है।
2. सम्प्रदाने चतुर्थी– अर्थात् सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभुक्ति होती है। जिसे कुछ दिया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • नृपः ब्राह्मणाय धेनुं ददाति। – (राजा ब्राह्मण को गाय देता है।)
  • धनिकः याचकाय वस्त्रं यच्छति। – (धनिक याचक को वस्त्र देता है।)
  • वानराय फलानि देहि। – (बन्दर को फल दो)
  • बालकेभ्यः पुस्तकं ददाति। – (बालकों के लिए पुस्तकें देता है।)
  • धनिकः विप्राय गौः ददाति। – (धनिक ब्राह्मण के लिए गाय देता है।)

चतुर्थी उपपद विभक्ति
1. ‘रुच्यर्थानां प्रीयमाणः’ अर्थात् रुच् (अच्छा लगना) अर्थ वाली धातुओं (क्रियाओं) के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कोई वस्तु अच्छी लगती है, उस व्यक्ति में चतुर्थी विभक्ति आती है और जो वस्तु अच्छी लगती है, उसमें प्रथमा विभक्ति होती है।
जैसे–

  • बालकाय मोदकं रोचते। – (बालक को लड्डू अच्छा लगता है।)
  • हरये भक्तिः रोचते। – (हरि को भक्ति अच्छी लगती है।)
  • मह्यं त्वं रोचसे। – (मुझको तुम अच्छे लगते हो।)
  • तस्मै अहं रोचे। – (उसको मैं अच्छा लगता हूँ।)

इस प्रकार के वाक्यों में प्रथमा विभक्ति वाला पद कर्ता कारक माना जाता है, अतः क्रिया प्रथमा विभक्ति वाले पद के पुरुष के अनुसार होती है।

रुच् धातु (क्रिया) के समान अर्थ वाली ‘स्वद्’ (अच्छा लगना) धातु भी है। अत: स्वद् धातु के साथ भी प्रसन्न होने वाले में चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे–

  • बालकाय मोदकं स्वदते। – (बालक को लड्डू अच्छा लगता है।)
  • गोपालाय दुग्धं स्वदते। – (गोपाल को दूध अच्छा लगता है।)
  • रामाय मोहनः स्वदते। – (राम को मोहन अच्छा लगता है।)
  • सीतायै रामः स्वदते। – (सीता को राम अच्छा लगता है।)

2. ‘स्पृहेरीप्सितः’ अर्थात् स्पृह (स्पृहा करना) धातु के योग में चाही जाने वाली वस्तु की सम्प्रदान कारक संज्ञा हो जाती है और उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे–
बालकः पुष्पेभ्यः स्पृह्यति। – (बालक पुष्पों की स्पृहा करता है।)

3. ‘क्रुधदुहेर्थ्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः’ अर्थात् ‘ क्रुध् (क्रोध करना), द्रुह (द्रोह करना), ई (ईष्र्या करना) और असूय् (जलन करना) धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थ वाली अन्य धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध आदि किया जाता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होने से उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे–

  • स्वामी सेवकाय क्रुध्यति कुप्यति वा। – (स्वामी सेवक पर क्रोध करता है।)
  • दुर्जनः सज्जनाय द्रुह्यति। – (दुर्जन सज्जन से द्रोह करता है।)
  • राक्षस: हरये ईर्थ्यति। – (राक्षस हरि से ईर्ष्या करता है।)
  • दुर्योधनः युधिष्ठिराय असूयति। – (दुर्योधन युधिष्ठिर से जलन करता है।)

किन्तु अभि, अधि और सम् उपसर्गपूर्वक क्रुध्, द्रुह् धातु के साथ द्वितीया विभक्ति ही होती है।
जैसे–

  • राक्षसः रामम् अभिक्रुध्यति। – (राक्षस राम पर क्रोध करता है।)
  • पिता पुत्रं संक्रुध्यति। – (पिता पुत्र पर क्रोध करता है।)

4. धारेरुत्तमः – धृ (ऋण लेना) धातु के योग में ऋण देने वाले में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • गणेशः सोमदत्ताय शतं धारयति। – (गणेश सोमदत्त से 100 रुपये ऋण/उधार लेता है।)
  • जना: कोषाय धनं धारयन्ति। – (लोग खजाने से धन उधार/ऋण लेते हैं।)

5. ‘ताद चतुर्थी’ अर्थात् जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • भक्तः मुक्तये हरिं भजति। – (भक्त मुक्ति के लिए हरि को भजता है।)
  • शिशुः दुग्धाय क्रन्दति। – (बालक दूध के लिए चीखता है।)

6. ‘नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च’ अर्थात् नमः (नमस्कार), स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा (अग्नि में आहुति), स्वधा (पितरों के लिए अन्नादि का दान), अलं (पर्याप्त, समर्थ) और वषट् (आहुति) के साथ चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है।
जैसे–

  • श्रीगणेशाय नमः। – (श्री गणेश जी के लिए नमस्कार।)
  • रामाय स्वस्ति। – (राम का कल्याण हो।)
  • अग्नये स्वाहा। – (अग्नि के लिए आहुति।)
  • पितृभ्यः स्वधा। – (पितरों के लिए हवि का दान)
  • हरिः दैत्येभ्यः अलम्। – (हरि दैत्यों के लिए पर्याप्त हैं।)
  • इन्द्राय वषट्। – (इन्द्र के लिए हवि का दान।)

विशेष—यहाँ ‘अलम्’ का अर्थ पर्याप्त या समर्थ है, अतः चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। यदि ‘अलम्’ का प्रयोग मना (निषेध) के अर्थ में होगा, तो वहाँ तृतीया विभक्ति ही होगी।
7. श्लाघहनुङस्थाशपां ज्ञीप्समानः– श्लाघ् (स्तुति करना) हनुङ् (छिपना), स्था (ठहरना), शप् (उलाहना देना) इन धातुओं के योग में कर्ता जिस पर अपना भाव प्रकट करता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है। जैसे–
गोपीस्मरात् कृष्णाय श्लाघते (गोपी कामवश होकर कृष्ण की श्लाघा करती है।)

(पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण नियम)

8. ‘हितयोगे च’ (वार्तिक) अर्थात् हित और सुख शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति आती है।
जैसे–

  • विप्राय हितं भूयात्। – (ब्राह्मण का हित हो।)
  • बालकाय सुखं भूयात्। – (बालक का सुख हो।)

9. कथ् (कहना), उपदिश् (उपदेश देना), नि उपसर्गपूर्वक विद् (निवेदन करना), आचक्ष् (कहना) के साथ चतुर्थी आती है।
जैसे–

  • शिक्षकः छात्राय कथयति। – (शिक्षक छात्र से कहता है।)
  • शिष्यः गुरवे निवेदयति। – (शिष्य गुरु से निवेदन करता है।)
  • गुरु: शिष्याय उपदिशति। – (गुरु शिष्य को उपदेश करता है।)
  • बालकाय कथाम् आचक्षते। – (बालक को कथा कहता है।)

10. प्रत्याभ्यां श्रुतः पूर्वस्य कर्ता– प्रति या आ उपसर्गपूर्वक श्रु (प्रतिज्ञा करना) धातु के योग में जिससे प्रतिज्ञा की जाती है, उसमें सम्प्रदान कारक होता है और चतुर्थी विभिक्ति होती है।
जैसे–

  • विप्राय गां प्रतिशृणोति। – (विप्र से गाय की प्रतिज्ञा करता है।)
  • याचकाय वस्त्रम् आशृणोति। – (याचक से वस्त्र देने की प्रतिज्ञा करता है।)

11. चतुर्थी विधाने तादर्थ्य उपसंख्यानम्– तादर्थ्य अर्थात् जिस कार्य के लिए कारणवाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, उस कारणवाची शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • मोक्षाय हरिं भजति। – (मोक्ष के लिए हरि को भजता है।)
  • धनाय श्रमं करोति। – (धन के लिए श्रम करता है।)

पञ्चमी विभक्ति
1. ध्रुवमपायेऽपादानम– अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति के अलग होने में जो कारक स्थिर होता है अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है।
2. अपादाने पञ्चमी अर्थात् अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।
जैसे–

  • वृक्षात् पत्रं पतति। – (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
  • नृपः ग्रामाद् आगच्छति। – (राजा गाँव से आता है।)।

उपर्युक्त दोनों उदाहरण–ों में क्रमशः ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम’ स्थिर कारक हैं और इनसे क्रमश: ‘पत्र’ और ‘नृपः’ अलग हो रहे हैं। अत: ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम’ की अपादान संज्ञा होने से इनमें पञ्चमी विभक्ति आयी है।

पञ्चमी उपपद विभक्ति
1. भीत्रार्थानां भयहेतुः– अर्थात् भय अर्थ की और रक्षा अर्थ की धातुओं के साथ, जिससे भय हो अथवा रक्षा हो, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति आती है।
जैसे–

  • बालकः सिंहात् बिभेति। – (बालक शेर से डरता है।)
  • नृपः दुष्टात् रक्षति/त्रायते। – (राजा दुष्ट से रक्षा करता है।)
  • बालकः चौराद् बिभेति। – (बालक चोर से डरता है।)
  • नृपः चौरात् त्रायते। – (राजा चोर से रक्षा करता है।)

2. जनिकर्तुः प्रकृतिः– अर्थात् ‘जन्’ (उत्पन्न होना) धातु का जो कर्ता है, उसके हेतु (कारण) की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)
जैसे–

  • गोमयात् वृश्चिक: जायते। – (गाय के गोबर से बिच्छू उत्पन्न होता है।)
  • कामात् क्रोधः जायते। – (काम से क्रोध उत्पन्न होता है।)
  • प्रजापतेः लोकः जायते। – (ब्रह्मा से संसार उत्पन्न होता है।)
  • मुखाद् अग्निः अंजायत। – (मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।)

3. भुवः प्रभवः– अर्थात् भू (होना) धातु के कर्ता का जो उद्गम स्थान होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • गंगा हिमालयात् प्रभवति। – (गंगा हिमालय से निकलती है।)
  • कश्मीरात् वितस्तानदी प्रभवति। – (कश्मीर से वितस्ता नदी निकलती है।)

4. आख्यातोपयोगे– अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या ग्रहण की जाती है उस शिक्षक आदि की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है।
यथा–

  1. शिष्यः उपाध्यायात् अधीते। – (शिष्य उपाध्याय से पढ़ता है।)
  2. छात्र: शिक्षकात् पठति। – (छात्र शिक्षक से पढ़ता है।)

5. वारणार्थानामीप्सितः– वारण (हटाना) अर्थ की धातु के योग में अत्यन्त इष्ट (प्रिय) वस्तु की अपादान संज्ञा होती है और उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है।
जैसे–
कृषक: यवेभ्यः गां वारयति। – (किसान जौ से गाय को हटाता है।)
यहाँ इष्ट वस्तु यव (जौ) है, अत: यव (जौ) की अपादान कारक संज्ञा होने से पञ्चमी विभक्ति आयी है।

6. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्– जुगुप्सा (घृणा करना), विराम (रुकना) और प्रमाद (असावधानी करना) अर्थ वाली धातुओं (‘क्रियाओं) के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे–

  1. महेशः पापात् जुगुप्सते। – (महेश पाप से घृणा करता है।)
  2. कुलदीपः अधर्मात् विरमति। – (कुलदीप अधर्म से रुकता है।)
  3. मोहन: अध्ययनात् प्रमाद्यति। – (मोहन पढ़ने से प्रमाद करता है।)

7. अन्यारादितरतेंदिशब्दाचूत्तरपदाजाहियुक्ते– अन्य, आरात, इतर, ऋते, दिक् आदि शब्दों के योग में पंचमी विभक्ति होती है। उदाहरण–ार्थ

  • ऋते (बिना) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– ज्ञानात् ऋते मुक्तिः न भवति। (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है।)
  • प्रभृति (से लेकर) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– सः बाल्यकालात् प्रभृति अद्यावधि: अत्रैव पठति। (वह बचपन से लेकर अब तक यहाँ ही पढ़ता है।)
  • बहिः (बाहर) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– छात्राः विद्यालयात् बहिः गच्छन्ति। (छात्र विद्यालय से बाहर जाते हैं।)
  • पूर्वम् (पहले) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– विद्यालयगमनात् पूर्वं गृहकार्यं कुरु। (विद्यालय जाने से पहले गृहकार्य को करो।)
  • प्राक् (पूर्व) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– ग्रामात् प्राक् आश्रमः अस्ति। (गाँव से पहले आश्रम है।)
  • अन्य (दूसरा) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– रामात् अन्यः अयं कः अस्ति? (राम के अतिरिक्त यह दूसरा कौन है?)
  • अनन्तरम् (बाद) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– यशवन्तः पठनात् अनन्तरं क्रीडाक्षेत्रं गच्छति। (यशवन्त पढ़ने के बाद खेल के मैदान को जाता है।)
  • पृथक् (अलग) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति। (नगर से अलग आश्रम है।)
  • परम् (बाद) शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे– रामात् परं श्यामः अस्ति। (राम के बाद श्याम है।)

(पाठ्यक्रम के अंतिरिक्त महत्त्वपूर्ण नियम)

8. पञ्चमी विभक्तेः– जब दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘ईयसुन्’ अथवा ‘तरप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है।
यथा–

  • रामः श्यामात् पटुतरः अस्ति। – (राम श्याम से अधिक चतुर है।)
  • माता भूमेः गुरुतरा अस्ति। – (माता भूमि से बढ़कर है।)
  • जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी। – (जननी और जन्म – भूमि स्वर्ग से भी महान् हैं।)

10. अन्तर्षी येनादर्शनमिच्छति– जब कर्ता जिससे अदर्शन (छिपना) चाहता है, तब उस कारक की अपादान संज्ञा होती है और अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति होती है।)
जैसे–

  • बालकः मातुः निलीयते। – (बालक माता से छिपता है।)
  • महेशः जनकात् निलीयते। – (महेश पिता से छिपता है।

षष्ठी विभक्ति
1. षष्ठी शेषे– सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त होती है। जैसे– रमेशः संस्कृतस्य पुस्तकं पठति। (रमेश संस्कृत की पुस्तक पढ़ता है।)

षष्ठी उपपद विभक्ति
1. कतृकर्मणोः कृति – कृदन्त शब्द अर्थात् जिनके अन्त में कृत् तृच् (तृ), अच् (अ), घञ् (अ), ल्युट् (अन्), क्तिन् (ति), ण्वुल्, (अक्) आदि रहते हैं, ऐसे शब्दों के कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है।
यथा–

  • शिशोः रोदनम् (बच्चे का रोना।)
  • कालस्य गतिः। (समय की चाल।)

2. क्तस्य च वर्तमाने – भूतकाल का वाचक ‘क्त’ प्रत्ययान्त शब्द जब वर्तमान के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब षष्ठी होती है। यथा– अहमेव मतो महीपतेः। (राजा मुझे ही मानते हैं।)
3. कृत्यानां कर्तरि वा – कृत् प्रत्ययान्त (तव्यत्, अनीयर, यत्, ण्यत् , क्यप्) शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया और षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–
कृष्णेन कृष्णस्य वा पूज्यः – (कृष्ण के द्वारा या कृष्ण का पूज्य)
मम मया वा पूज्यः – (मेरा या मेरे द्वारा पूज्य)।

4. तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्– अर्थात् तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है।) यथा

  • सुरेशः महेशस्य तुल्यः अस्ति। – (सुरेश महेश के समान है।) – (तुल्यार्थे षष्ठी विभक्तिः।)
  • सुरेशः महेशेन तुल्यः अस्ति। – (सुरेश महेश के समान है।) – (तुल्यार्थे तृतीया विभक्तिः।)
  • सीता गीतायाः तुल्या विद्यते। – (सीता गीता के समान है।) – (तुल्यार्थे षष्ठी विभक्तिः।)
  • सीता गीतया तुल्या विद्यते। – (सीता गीता के समान है।) – (तुल्यार्थे तृतीया विभक्तिः।)

पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण नियम
5. ‘षष्ठी हेतु प्रयोगे’– अर्थात् हेतु शब्द का प्रयोग करने पर प्रयोजनवाचक शब्द एवं हेतु शब्द, दोनों में ही षष्ठी विभक्ति आती है।
जैसे–

  • अन्नस्य हेतोः वसति। – (अन्न के कारण रहता है।)
  • अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन्। – (थोड़े के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ)।

6. षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन’– अर्थात् दिशावाची अतस् प्रत्यय तथा उसके अर्थ वाले प्रत्यय लगाकर बने शब्दों तथा इसी प्रकार के अर्थ के, पुरस्तात् (सामने), पश्चात् (पीछे), उपरिष्टात् (ऊपर की ओर), और अधस्तात् (नीचे की ओर) आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • ग्रामस्य दक्षिणत: देवालयोऽति। – (गाँव के दक्षिण की ओर मन्दिर है।)
  • वृक्षस्य अधः (अधस्ताद् वा) जलम् अस्ति। – (वृक्ष के नीचे की ओर जल है।)

7. ‘अधीगर्थदयेषां कर्मणि’– अर्थात् स्मरण अर्थ की धातु के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–
बालकः मातुः स्मरति। – (बालक माता को स्मरण करता है।) (यहाँ खेदपूर्वक स्मरण होने के कारण कर्म के स्थान पर षष्ठी हुई है।)

8. यतश्च निर्धारणम्– जब बहुत में से किसी एक की जाति, गुण क्रिया के द्वारा विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘इष्ठन्’ अथवा ‘तमप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।)
जैसे–

  • कवीनां कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। – (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।)
  • कविषु कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। – (छात्रों में सुरेश सबसे चतुर है।)
  • छात्राणां सुरेशः पटुतमः अस्ति। – (छात्रों में सुरेश सबसे चतुर है।)
  • छात्रेषु सुरेशः पटुतमः अस्ति। – (छात्र सुरेश सबसे चतुर है।)

9. जासिनि प्रहणनाट क्राथपिषां हिंसायाम्– हिंसार्थक जस्, नि तथा उपसर्गपूर्वक हुन्, क्रथ्, नट् तथा पिस्। धातुओं के कर्म में षष्ठी होती है।
यथा–

  • बधिकस्य नाटयितुं क्राथयितुं वा। – (बधिक के वध करने के लिए।)
  • अपराधिनः निहन्तुं, प्रहन्तु, प्रणिहन्तुं वा – (अपराधी के मारने के लिए।)।

10. दिवस्तदर्थस्य– दिव्’ धातु का प्रयोग जुआ खेलने के अर्थ में होता है, तब उसके योग में भी कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा–

  • शतस्य दीव्यति। – (सौ का जुआ खेलता है।)

11. अवयवावयविभाव होने पर अंशी तथा अवयवी में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा–

  • जलस्य बिन्दुः। – (जल की बूंद।)
  • रात्रेः पूर्वम् – (रात्रि के पूर्व।)

12. निम्नलिखित शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–
(i) अधः (नीचे) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • वृक्षस्य अधः बालकः शेते। – (वृक्ष के नीचे बालक सोता है।)

(ii) उपरि (ऊपर) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • भवनस्य उपरि खगाः सन्ति। – (भवन के ऊपर पक्षी हैं।)

(iii) पुरः (सामने) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • विद्यालयस्य पुरः मन्दिरम् अस्ति। – (विद्यालय के सामने मन्दिर है।)

(iv) समक्षम् (सामने) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • अध्यापकस्य समक्षं शिष्यः अस्ति। – (अध्यापक के सामने शिष्य है।)

(v) समीपम् (समीप) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • नगरस्य समीपं ग्रामः अस्ति। – (नगर के समीप गाँव है।)

(vi) मध्ये (बीच में) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • पशूनां मध्ये ग्वालः अस्ति। – (पशुओं के बीच में ग्वाला है।)

(vii) कृते (लिए) शब्द के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • बालकस्य कृते दुग्धम् आनय। – (बालक के लिए दूध लाओ।)

सप्तमी विभक्ति
1. आधारोऽधिकरणम्– क्रिया की सिद्धि में जो आधार होता है, उसकी अधिकरण संज्ञा होती है और अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। यथा

  • नृपः सिंहासने तिष्ठति। – (राजा सिंहासन पर बैठता है।) – (‘सिंहासन’ में सप्तमी है)
  • वयं ग्रामे निवसामः। – (हम गाँव में रहते हैं।) – (‘ग्राम’ में सप्तमी है)
  • तिलेषु तैलं विद्यते। – (तिलों में तेल होता है।) – (‘तिलों में सप्तमी है)

सप्तमी उपपद विभक्ति
1. यस्य च भावेन भावलक्षणम्– जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है तब पूर्व क्रिया में और उसके कर्ता में सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • रामे वनं गते दशरथः प्राणान् अत्यजत्। – (राम के वन जाने पर दशरथ ने प्राण त्याग दिये।)
  • सूर्ये अस्तं गते सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन्। – (सूर्य के अस्त होने पर सभी बालक घरों को चले गये।)

2. यतश्च निर्धारणम्– जाति, गुण, क्रिया और संज्ञा की विशेषता के कारण जहाँ किसी वस्तु को अपने समुदाय से पृथक् किया जाता है, उससे षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • कवींना कविषु वा कालिदासः श्रेष्ठः। – (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।)
  • नृणां नृषु वा ब्राह्मणः श्रेष्ठः। – (मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।)
  • गवां गोषु वा कृष्णा गौर्बहुक्षीरा। – (गायों में काली गाय बहुत दूध देती है।)
  • गच्छताम् गच्छत्सु वा धावन् शीघ्रः। – (जाने वालों में दौड़ता हुआ शीघ्र ही जाता है।)

3. ‘साध्वसाधु प्रयोगे च’– साधु और असाधु शब्दों के प्रयोग करने पर सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • कृष्णः मातरि साधुः। – (कृष्ण माता के प्रति अच्छा है।)

4. स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैश्च– स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षि, प्रतिभू, प्रसूत इन सात शब्दों के प्रयोग में षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • गवां गोषु वा स्वामी। – (गायों के स्वामी।)
  • गवां गोषु वा प्रसूतः। – (गायों से पैदा हुआ 1)

(पाठ्यक्रम के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण नियम)
5. जिसमें स्नेह किया जाता है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • पिता पुत्रे स्निह्यति। – (पिता पुत्र पर स्नेह करता है।)

6. विषय में, बारे में तथा समयबोधक शब्दों में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
जैसे–

  • मम मोक्षे इच्छाऽस्ति। – मेरी मोक्ष (के विषय) में इच्छा है।)
  • सः सायंकाले पठति। – (वह शाम को पढ़ता है।)

7. युज् धातु तथा उससे बनने वाले योग्य तथा उपयुक्त आदि शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • त्रैलोकस्य अपि प्रभुत्वं तस्मिन् युज्यते। – (त्रैलोक्य को भी राज्य उसके लिए उचित है।)
  • स धर्माधिकारे नियुक्तोऽस्ति। – (वह धर्माधिकार में लगाया गया है।)

8. ‘अप’ उपसर्गपूर्वक राथ् धातु और उससे बने शब्दों के योग में, जिसके प्रति अपराध होता है, उसमें सप्तमी या षष्ठीं होती है।
जैसे–

  • सा पूजायोग्ये अपराद्धा। – (उसने पूज्य व्यक्ति के प्रति अपराध किया है।)
  • सा पूजायोग्यस्य अपराद्धा। – (उसने पूज्य व्यक्ति के प्रति अपराध किया है।)
  • अपराद्धोऽस्मि तत्र भवतः कण्वस्य। – (पूज्य कण्व के प्रति मैंने अपराध किया है।)

9. फेंकना या झपटना अर्थ की क्षिप्, मुच् या अस् धातुओं के साथ सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • नृपः मृगे वाणं क्षिपति। – (राजा हिरन पर बाण फेंकता है।)

10. संलग्नार्थक और चतुरार्थक शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
यथा–

  • बलदेवः स्वकार्ये संलग्नः अस्ति। – (बलदेव अपने कार्य में संलग्न है।)
  • जयदेवः संस्कृते चतुरः अस्ति। – (जयेदव संस्कृत में चतुर है।)

11. निम्नलिखित शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसे–

  • ‘श्रद्धा’ शब्द के योग में – बालकस्य पितरि श्रद्धा अस्ति। – (बालक की पिता पर श्रद्धा है।)।
  • ‘विश्वासः’ शब्द के योग में – महेशस्य स्वमित्रे विश्वासः अस्ति। – (महेश को अपने मित्र पर विश्वास है।)

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