RBSE Class 7 Hindi रचना निबंध

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Rajasthan Board RBSE Class 7 Hindi रचना निबंध

गणतंत्र दिवस

प्रस्तावना- हमारे राष्ट्रीय पर्वो में ‘स्वतंत्रता दिवस’ एवं “गणतंत्र दिवस’ प्रमुख हैं। ‘गणतंत्र’ का अभिप्राय हैंगण = समूह तथा तंत्र = व्यवस्था अर्थात् समूह द्वारा शासन को संचालित कृरने की व्यवस्था। सन् 1947 में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्र होने के बाद 26 जनवरी सन् 1950 से देश में गणतंत्रात्मक पद्धति से शासन चलाने की व्यवस्था प्रारंभ हुयी।

मनाने का कारण- सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ तो हमारी सरकार के पास शासन चलाने के लिए अपने नियम नहीं थे। सारा शासन अंग्रेजों के बनाये हुए विधान के अनुसार ही चलता था। अतः एक संविधान सभा का गठन करके शासन चलाने के लिए एक संविधान बनाया गया। यह संविधान 26 जनवरी सन् 1950 को लागू किया गया। इसी संविधान के अनुसार हमारा देश उसी दिन से गणतंत्र राष्ट्र बन गया। इसी खुशी को व्यक्त करने के लिए पूरा राष्ट्र 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस’ के रूप में धूम-धाम के साथ मनाता है।

मनाने का ढंग- गणतंत्र दिवस का समारोह पूरे देश में मनाया जाता है। हमारे देश की राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन प्रातः 8 बजे के बाद एक परेड निकाली जाती है। इस परेड में भारत के सभी प्रांतों की झाँकियाँ, तीनों सेनाओं, पुलिस तथा एन.सी.सी. के जवान और स्काउट-बच्चे भाग लेते हैं। इंडिया गेट के पास राष्ट्रपति इस परेड की सलामी लेते हैं। इस दिन दिल्ली को नव वधू की तरह सजाया जाता है। महीनों पहले से गणतंत्र दिवस समारोह की तैयारियाँ चलती हैं। इस भव्य समारोह को देखने के लिए विदेशों से अनेक लोग दिल्ली आते हैं। देश के सभी स्कूल-कॉलेजों में तथा सरकारी भवनों पर राष्ट्रध्वज फहराए जाते हैं, प्रभात फेरियाँ निकाली जाती हैं तथा अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। रात्रि में सरकारी भवनों पर रोशनी की जाती है।

उपसंहार- गणतंत्र दिवस हमारा राष्ट्रीय पर्व है। इसके साथ हमारी भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। हम इस दिन आजादी की रक्षा का संकल्प भी लेते हैं तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने में जिन वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, उन्हें याद करके स्वयं को गौरवशाली अनुभव करते हैं। छब्बीस जनवरी के दिन हम सबका यह ही प्रण हो। अपने जीवन से ज्यादा प्यारा भारत का कण-कण हो।

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स्वतंत्रता दिवस।

प्रस्तावना- स्वतंत्रता दिवस हमारा राष्ट्रीय पर्व हैं। यह प्रतिवर्ष पंद्रह अगस्त को मनाया जाता है। पंद्रह अगस्त 1947 ई. को हमारा देश अंग्रेजी सरकार की दासता से मुक्त हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्त होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति के मन में असीम उत्साह उमड़ पड़ा। तभी से प्रत्येक भारतवासी इस राष्ट्रीय पर्व को बड़े प्रेम और सम्मान के साथ मनाता है।

स्वतंत्रता दिवस को मनाना- स्वतंत्रता दिवस सारे देश में अत्यंत उल्लास के साथ मनाया जाता है। विद्यालयों में कई दिन पूर्व खेल-कूद और अभ्यास शुरू हो जाते हैं। सूर्योदय से पूर्व ही प्रभातफेरियाँ, राष्ट्रीय गान, भजन और प्रार्थनाओं से आकाशमंडल गूंज उठता है। प्रत्येक घर पर तिरंगा लहराता हुआ दिखाई पड़ता है। दिल्ली के लाल किले पर भारत के प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। इस अवसर पर लोग राष्ट्रीय एकता को बनाये रखने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं।

स्वतंत्रता दिवस का महत्त्व- पंद्रह अगस्त भारतवासियों के लिए बड़े गौरव का दिन है। लगभग एक शताब्दी का संघर्ष स्वतंत्रता दिवस से जुड़ा हुआ है। अगणित भारतीयों के बलिदान के बाद आजादी के इस पुनीत पर्व का अवसर प्राप्त हुआ है। रानी लक्ष्मीबाई, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, बाल गंगाधर तिलक एवं सुभाष चंद्र बौस जैसे अनेक नेताओं के अदम्य पराक्रम एवं साहस की गाथा को सुनाने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व

उपसंहार- पंद्रह अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने से हम राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को दुहराते हैं। हमें चाहिए कि हम समस्त भारतवासी आपसी मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में बँधकर कंधे-से-कंधा मिलाकर भारत को उन्नत राष्ट्र बनाने में हर प्रकार का सहयोग प्रदान करें।

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दीपावली।

प्रस्तावना- भारत त्योहारों का देश है। यहाँ अनेक धर्मों, संप्रदायों और जातियों के लोग रहते हैं। ये सभी लोग अपने-अपने विश्वासों और परंपराओं के अनुसार अनेक त्योहार मनाते हैं। इनमें से एक प्रमुख त्योहार दीपावली है। यह हिंदुओं का त्योहार है। इसे कार्तिक महीने के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है।

मनाने का कारण- कहते हैं कि भगवान् राम रावण को मारकर सीता और लक्ष्मण के साथ इसी दिन अयोध्या लौटे थे। अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में नगर को सजाया और दीपक जलाये, तभी से दीपावली का त्योहार मनाया जाने लगा है।

मनाने का ढंग- दीपावली का उत्सव कई दिन तक चलता है। इसका प्रारंभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से होता है। इसे धनतेरस भी कहते हैं। इस दिन लोग बर्तन आदि खरीदते हैं। इसी दिन वैद्य लोग धन्वंतरि जयंती मनाते हैं। अगले दिन नरक चतुर्दशी होती है। इसको छोटी दीपावली भी कहते हैं। मुख्य उत्सव अगली रात्रि को होता है। इस रात्रि में लक्ष्मी और गणेश का पूजन होता है। लोग घरों, दुकानों और कार्यालयों को दीपकों और रंग-बिरंगे बल्बों की मालाओं से सजाते हैं। सभी नये वस्त्र पहनते हैं तथा इष्ट-मित्रों और रिश्तेदारों को मिठाइयाँ भेजते हैं। दीपावली के अगले दिन गोवर्धन-पूजा और तीसरे दिन भैया दौज के उत्सव मनाये जाते हैं।

दीपावली का महत्त्व- दीपावली अत्यंत महत्त्वपूर्ण त्योहार है। इस उत्सव पर घरों की सफाई-पुताई अवश्य की जाती है। इससे बरसात की सारी गंदगी साफ हो जाती है। दीपक जलने से वातावरण भी शुद्ध होता हैं। मच्छर आदि बीमारी फैलाने वाले कीट-पतंगे मर जाते हैं। कुरीतियाँ- कुछ लोग इस दिन जुआ खेलते हैं। हजारों रुपये जुए में हारकर लोग दूसरों के ऋणी हो जाते हैं। अब बच्चों में पटाखे छोड़ने का चलन बहुत हो गया है। पटाखों के कारण कभी-कभी भयंकर दुर्घटनाएँ हो जाती

उपसंहार- दीपावली वास्तव में एक पवित्र और महत्त्वपूर्ण त्योहार है। यह हमें स्वच्छता, प्रसन्नता और सम्पन्नता का वरदान देता है। दीपावली त्योहार है न्यारा।। मन में लाये नव उजियारा।।

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रक्षा-बंधन

प्रस्तावना- हिन्दू-त्योहारों में दो त्योहार ऐसे हैं जो भाई-बहिन के पवित्र प्रेम पर आधारित हैं। ये त्योहार हैं- भैया-दौज तथा रक्षा-बंधन। रक्षा-बंधन का त्योहार वर्षा ऋतु में श्रावण मास की पूर्णिमा को होता है। इसलिए इसे श्रावणी पर्व भी कहते हैं। उस समय आकाश में काली घटाएँ छायी रहती हैं। धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। सभी छोटे-बड़े नदी-तालाब पानी से भर जाते हैं।

मनाने का कारण- रक्षा-बंधन को मनाने के पीछे अनेक कारण हैं। पौराणिक आधार पर कहा जाता है कि देवताओं तथा राक्षसों के युद्ध में देवताओं की जीत के लिए इंद्राणी ने एक ब्राह्मण के हाथ से श्रावण की पूर्णिमा को रक्षा-सूत्र बैंधवाया था जिसके परिणामस्वरूप देवताओं की जीत हुई। तभी से इस परंपरा ने सामाजिक त्योहार का रूप ले लिया। इसमें बहिनें भाइयों को राखी बाँधती हैं, मिठाई खिलाती हैं और अपनी रक्षा की कामना करती हैं। भाई इसके बदले में उन्हें उपहार देते हैं।

महत्व- रक्षा-बंधन एक महत्त्वपूर्ण त्योहार है। यह भाई-बहिन के पवित्र प्रेम पर आधारित है। राखी के चार कोमल धागे प्रेम का अटूट बंधन बन जाते हैं। राखी में प्रेम का वह अमृत भरा हुआ है, जो सारे आपसी बैर-विरोधों को भुला देता है। राखी के बहाने दूर-दूर रहने वाले भाई-बहिन वर्ष में एक बार मिल लेते हैं।

हमारे इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जबकि राखी की पवित्रता की रक्षा भाइयों ने अपने जीवन का मूल्य देकर की है। विधर्मी और विदेशी लोगों ने भी राखी के महत्व को स्वीकार किया है। एक बार रानी कर्मवती ने मुगल सम्राट् हुमायूँ को राखी भेजकर युद्ध में सहायता माँगी। कर्मवती के पति से उसके पिता की शत्रुता रही थी। किंतु राखी पाते ही वह सब कुछ भूलकर सहायता देने को तैयार हो गया।

वर्तमान स्थिति- अब धीरे-धीरे रक्षा-बंधन का वास्तविक आनंद कम होता जा रहा है। राखियों में चमक-दमक तो पहले से अधिक बढ़ गयी है किंतु उनके पीछे छिपी हुई भावना समाप्त होती जा रही है। कुछ बहिनें अब केवल डाक से राखी भेजकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेती हैं।

उपसंहार- यह त्योहार हमें अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा करने की शिक्षा देता है। यह बहिन और भाई को सदा के लिए प्रेम के धागे में बाँधे रखता है।

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होली

प्रस्तावना- हमारे देश के त्योहारों में होली का प्रमुख स्थान है। यह रंगों का मस्ती भरा त्योहार है। इसे सभी लोग उत्साह एवं उमंग के साथ मनाते हैं। अन्य धर्मों को मानने वाले भी इसमें उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।

समय- फाल्गुन मास की पूर्णिमा को जबकि चंद्रदेव अपनी सोलह कलाओं के साथ उदित होते हैं तभी मानो ऋतुराज बसंत का स्वागत करने आ जाती हैं- अबीर और गुलाल उड़ाती रंग-बिरंगी मस्त होली।

मनाने का कारण- होली के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार स्वयं को ईश्वर मानने वाला दुष्ट हिरण्यकशिपु जब अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद पर अनेक उपाय करने के उपरांत भी उसका अहित न कर सका, तो उसने प्रह्लाद की बुआ होलिका से सहायता माँगी। होलिका को वरदान मिला हुआ था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती है। होलिका भक्त प्रहलाद को गोद में लेकर बैठ गयी थी तथा अग्नि जला दी गयी। ईश्वर की कृपा से भक्त प्रह्लाद का बाल-बाँका भी नहीं हुआ और होलिका जलकर राख हो गयी। इस प्रकार बुराई पर अच्छाई ने विजय प्राप्त की। उसी दिन से यह पुण्य पर्व मनाया जाता है।

मनाने का ढंग- होली का पर्व विशेष रूप से दो दिन तक मनाया जाता है। पूर्णिमा के दिन होलिका-दहन व पूजन आदि का कार्यक्रम होता है। इस दिन घर-घर में पकवान आदि बनाये जाते हैं। अगला दिन धुलेंडी का होता है। इस दिन बालक-बालिकाएँ, युवक-युवतियाँ ही नहीं, वरन् वृद्धं और वृद्धाएँ भी आपसी बैर-भाव को त्यागकर होली की मस्ती का आनंद लेते हैं। गरीब की कुटिया से लेकर राजमहल तक ऐसा कोई स्थान नहीं जो होली के रंग में नहीं रँग जाता। इस दिन सब लोग आपस में गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे के माथे पर गुलाल लगाते हैं। चारों ओर रंगों की धूम दिखाई देती है।

दोष- जहाँ एक ओर होली का पुनीत पर्व प्रेम का प्रतीक है वहीं कुछ लोगों ने होली का वास्तविक रूप बिगाड़ दिया है। कुछ शरारती लोग इस दिन कीचड़ या गोबर उछालते हैं, शराब पीते हैं। अबीर व सुंदर रंगों के स्थान पर काले रंगों का प्रयोग करते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम इन सभी बुराइयों को दूर कर इस पावन पर्व को दोषमुक्त कर दें।

उपसंहार- होली के ति गुलाल अर्थात् लाल रंग की ही धूम होती है। लाल रंग प्रेम का प्रतीक माना जाता है। अत: होली वास्तविक रूप में जन-जन में आनंद व उल्लास के साथ हुदय को प्रेम से भर देती है। होली के अवसर पर आओ एक दूजे पर गुलाल लगाएँ। अपने सब मतभेद भुलाकर प्रेम और सद्भाव बढाएँ।

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विजयादशमी (दशहरा)

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. मनाने का कारण,
  3. महत्व,
  4. कुरीतियाँ,
  5. उपसंहार।।

प्रस्तावना हिन्दुओं के चार मुख्य त्योहार हैं- दीवाली, होली, दशहरा तथा रक्षाबन्धन। चारों त्योहार समस्त हिन्दू जाति मिल-जुलकर मनाती है। दशहरा आश्विन (क्वार) के शुक्लपक्ष की दशमी को मनाया जाता है। इस समय तक वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी होती है। आकाश स्वच्छ हो जाता है। शरद ऋतु के आगमन से वातावरण की सारी तपन शान्त हो जाती है।

मनाने का कारण-कहते हैं कि इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी ने लंका-नरेश राक्षसराज रावण पर विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इस पर्व का नाम विजयादशमी पड़ा, उसी की स्मृति में यह त्योहार प्रतिवर्ष मनाया जाता है।

महत्व-दशहरा अत्यन्त धूमधाम से मनाया जाता है। कई दिन पहले से देश के अनेक भागों में रामलीलाएँ होती हैं। इनके अन्तर्गत मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाओं को रामलीला के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। विजयादशमी के दिन रावण एवं उसके भाई कुम्भकर्ण के पुतले जलाये जाते हैं। इस प्रकार यह त्योहार पूरे देश में अत्यन्त धूमधाम से मनाया जाता है। जिन स्थानों पर रावण के पुतले आदि जलाये जाते हैं, वहाँ बड़ा भारी मेला-सा लग जाता है। क्षत्रिय लोग इस दिन अपने अस्त्र-शस्त्रों का पूजन करते हैं।

कुरीतियाँ-अन्य पर्यों की भाँति इस पर्व में भी कुछ बुराइयाँ आ गयी हैं। रामलीला के नाम पर प्रायः निम्नस्तरीय नाच-गानों के कार्यक्रम होते हैं। बाहुबली अपने अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करके समाज को आतंकित करते हैं। रामलीला के नाम पर चन्दे के रूप में कुछ असामाजिक तत्व अवैध रूप से धन की जबरन वसूली करते हैं। यह प्रथा अत्यन्त ही निन्दनीय है।

उपसंहार-दशहरा प्रतिवर्ष हमारे समक्ष पावने संदेश लेकर आता है। यह हमें सिखाता है कि अनाचार, अन्याय व अधर्म पर सदाचार, न्याय व धर्म की विजय होती है इसीलिए हमें इन सभी दोषों से बचना चाहिए और शुभ कमों का अनुसरण कर अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए।

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गणगौर

प्रस्तावना- राजस्थान में अनेक मेले लगते हैं। इन्हीं मेलों में ‘गणगौर’ मेले का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मेलों में दूर-दूर से लोग आते हैं, एक-दूसरे से परिचय बढ़ता है तथा आनंद मिलता है।

मेले की परंपरा- ‘गणगौर’ हमारी भारतीय संस्कृति से जुड़ी परंपरा का पर्व है। कुमारी कन्याएँ उत्तम वर पाने के लिए एवं विवाहित स्त्रियाँ अपने अखण्ड सौभाग्य के लिए गौरी पूजा करती हैं। पार्वती (मौरी) ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए व्रत रखा था। इस मेले का सूत्र इसी पौराणिक लोककथा से जुड़ता है। गौरी (पार्वती) को सौभाग्य की देवी माना जाता है। गौरी की मिट्टी की प्रतिमाएँ बनाकर घर में रखी जाती हैं तथा सोलह दिन तक उन प्रतिमाओं का पूजन किया जाता है। इन प्रतिमाओं का विसर्जन करना ही गणगौर मेले का उद्देश्य है।

मेले का स्थान और समय- गणगौर का प्रसिद्ध मेला जयपुर में लगता है। यह मेला राजस्थान का प्रसिद्ध मेला है। यह मेला प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल तीज और चौथ को जयपुर के मुख्य मार्ग त्रिपोलिया बाजार, गणगौरी बाजार और चौगान में धूमधाम के साथ लगता है।

मेले का दृश्य- जयपुर के गणगौर मेले को देखने के लिए पूरे देश से तो दर्शक आते ही हैं साथ ही विदेशी दर्शक भी काफी संख्या में आते हैं।-राजस्थान के विभिन्न गाँवों से आने वाले लोग रंग-बिरंगी पोशाकें पहने हुए मेले में सम्मिलित होते हैं। स्त्रियों की टोलियाँ लोकगीत गाते हुए चलती हैं। मेले के आस-पास मकानों की छतों पर भारी भीड़ एकत्र हो जाती है। संध्या को निश्चित समय पर राजमहल के त्रिपोलिया दरवाजे से गणगौर की सवारी एक सुंदर पालकी में चलती है, जिसे सुंदर ढंग से सजाया जाता है। बैंड-बाजे, ऊँट, हाथी तथा सवारी से सुसज्जित यह जुलूस त्रिपोलिया बाजार से छोटी चौपड़ होता हुआ गणगौरी दरवाजे तक जाता है। यहाँ अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधन, खाने-पीने का सामान आदि मिलता

उपसंहार- मेलों के आयोजन से हमारी सांस्कृतिक परंपराएँ जीवित रहती हैं तथा हमें अपनी संस्कृति एवं लोक-परंपराओं की जानकारी होती है। उनके प्रति हमारे मन में आस्था जाग्रत होती है। इसके अतिरिक्त मेलों का सामाजिक महत्त्व भी होता है। मेलों में विभिन्न समाज के लोग आपस में मिलते हैं।

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मेरा गाँव/मेरा नगर

प्रस्तावना- भारतीय जीवन में ग्रामों का विशेष महत्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे कि वास्तविक भारत गाँवों में ही बसता है। हिंदी के महान कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी कविता में भारतमाता को ग्रामवासिनी बताया है।

गाँव का परिचय- मेरा सौभाग्य है कि मैं गाँव में पैदा हुआ। मेरे गाँव का नाम काशीपुर है। मेरा गाँव धौलपुर जिले में स्थित है।।
विशेषताएँ
(क) प्राकृतिक सौंदर्य- हमारा गाँव प्रकृति की गोद में बसा हुआ है। इसके उत्तर में चंबल नदी बहती है जो हर ऋतु में अपनी नयी छटा दिखाती है। यहाँ के खेतों और बागों में कभी हरियाली का साम्राज्य हो जाता है तो कभी रंग-बिरंगी फूलों की निराली दुनिया बस जाती है। सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य यहाँ बहुत सुहावने होते हैं।
(ख) निवासी- मेरे गाँव में सभी धर्मों और जातियों के लोग रहते हैं। यहाँ के अधिकांश लोग कृषक हैं। गाँव के लोग कृषि के साथ-साथ पशु-पालन भी करते हैं। यहाँ सुनार, लुहार, बढ़ई, बुनकर आदि शिल्पकार भी रहते हैं।
(ग) सादा जीवन- काशीपुर के निवासियों का जीवन प्राकृतिक और सादा है। यहाँ हम शुद्ध जल और शुद्ध वायु का सेवन करते हैं। यहाँ के अधिकांश लोग शाकाहारी हैं। लोग शुद्ध दूध, दही और घी का सेवन करते हैं।
(घ) प्रगति की ओर- पड़ोस में चीनी मिल खुल जाने के कारण हमारे गाँव में अब कोई बेरोजगार नहीं है। डाकखाना, अस्पताल तथा बैंक आदि की सुविधाएँ हमारे गाँव में उपलब्ध हैं। हमारा विद्यालय, जो पिछले साल तक उच्च प्राथमिक था, अब माध्यमिक हो गया है।

उपसंहार- इधर कुछ वर्षों से हमारे गाँव में फैशन के भूत का प्रवेश हो गया है। हमारे गाँव के निकट कोई सिनेमाघर नहीं था किंतु अब टेलीविजन और वीडियो का युग है। हमारे गाँव में कई वीडियो सैट हैं। इससे विद्यार्थियों के ऊपर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यदि सरकार गाँवों के विकास पर पूरा ध्यान दे तो हमारा गाँव भी आदर्श गाँव बन सकता है।

हमारा विद्यालय

प्रस्तावना- जिस स्थान पर विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते हैं वह स्थान ही विद्यालय कहलाता है। विद्यालय शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- विद्या + आलय अर्थात् विद्या का घर। गुरु एवं शिष्य के मधुर संबंधों का जन्म विद्यालय में ही होता है। मुझे अपने विद्यालय पर गर्व है। मैं जिस विद्यालय में पढ़ता हूँ उसका नाम ‘शिवाजी विद्या मंदिर’ है।

विद्यालय भवन- हमारे विद्यालय का भवन अत्यंत सुंदर एवं विशाल है। इसमें बीस कमरे हैं। प्रत्येक कमरा हवादार एवं प्रकाश युक्त है। प्रत्येक छात्र के बैठने के लिए अलग-अलग कुर्सी-मेज की व्यवस्था है। पुस्तकालय कक्ष, विज्ञान प्रयोगशाला, खेल-कूद का कक्ष, स्काउट कक्ष एवं एक बड़ा सभा कक्ष भी हमारे विद्यालय में हैं। शिक्षकों के बैठने के लिए स्टाफ रूम की व्यवस्था है। प्रधानाध्यापक जी का कक्ष मुख्य द्वार के पास ही है।

शिक्षक एवं शैक्षिक वातावरण- हमारे विद्यालय में चालीस शिक्षक हैं। सभी शिक्षक अपने-अपने विषय के विद्वान हैं। छात्रों के साथ शिक्षक बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं। जिस समय कक्षाएँ चलती हैं उस समय पूरे विद्यालय में शाँति रहती है।

अन्य विशेषताएँ- हमारा विद्यालय एक आदर्श विद्यालय है। यहाँ प्रत्येक शिक्षक अनुशासन रखते हुए शिक्षण के नवीन प्रयोगों के अनुसार शिक्षा देते हैं। साथ ही सभी विषयों पर प्रोजेक्ट कार्य भी कराया जाता है। यहाँ के तीन-चार छात्र हर वर्ष प्रदेश स्तर की मेरिट सूची में स्थान। पाते हैं। यहाँ शिक्षा के साथ-साथ अन्य क्रिया-कलापों का भी उचित प्रशिक्षण दिया जाता है। विद्यालय के समय में जिन छात्रों को कालांश खेलकूद का होता है वे चुपचाप पक्तिबद्ध होकर खेल के मैदान में चले जाते हैं। खेल के मैदान में खेलकूद के शिक्षक तरह-तरह के खेल सिखाते हुये लड़कों के साथ खेलते हैं।

उपसंहार- विद्यालय हमें व्यावहारिक नियमों की शिक्षा देते हैं। यहाँ हमें मिलकर रहना सिखाया जाता है। माता-पिता, गुरुजनों का आदर करना हमें यहीं सीखने को मिलता है। देश के प्रति प्रेम रखना तथा राष्ट्रीय एकता की बातें भी विद्यालय में सिखाई जाती हैं।

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पुस्तकालय।

प्रस्तावना- पुस्तकालय (पुस्तक+आलय) शब्द का अर्थ है-पुस्तकों का घर। वह स्थान जहाँ पुस्तकों का संग्रह किया जाता है ‘पुस्तकालय’ कहलाता है। पुस्तकालय में अनेक विषयों की पुस्तकें विषयानुसार क्रम से लगी रहती हैं। इनमें से लोग अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार पुस्तकें पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाते हैं।

पुस्तकालयों के प्रकार- पुस्तकालय मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं-

  1. निजी पुस्तकालय,
  2. सार्वजनिक पुस्तकालय।

निजी पुस्तकालय वह होता है। जो लोग अपने ही घर पर अपने लिए स्थापित करते हैं। ऐसे पुस्तकालय में केवल एक व्यक्ति या परिवार की रुचि की पुस्तकें होती हैं। सार्वजनिक पुस्तकालय आम जनता के लिए होता है। ऐसे पुस्तकालयों का संचालन तीन तरह से होता है- व्यक्तिगत स्तर पर, पंचायती स्तर पर और सरकारी स्तर पर। कुछ धनी लोग अपने ही पैसे से पुस्तकालय खुलवाकर जनता की सेवा करते हैं। ये व्यक्तिगत पुस्तकालय कहलाते हैं। मदिर, मस्जिद, गिरजाघर तथा विद्यालयों द्वारा संचालित पुस्तकालय पंचायती होते हैं। इनके अतिरिक्त सरकार भी कुछ पुस्तकालय चलाती है।

पुस्तकालय की उपयोगिता- पुस्तकालय ज्ञान के भंडार होते हैं, जिनके पास विद्यालय जाने के लिए समय नहीं है वे लोग पुस्तकालय की पुस्तकों से अपना ज्ञान बढ़ाते हैं।

आज पुस्तकों के मूल्य बहुत बढ़ गए हैं। इसलिए सब लोग उन्हें नहीं खरीद सकते। किंतु पुस्तकालय से पुस्तकें लेकर तो सभी पढ़ सकते हैं। इस प्रकार निर्धन व्यक्तियों के लिए पुस्तकालय विशेष लाभदायक होते हैं।

पुस्तक पढ़ना खाली समय बिताने का एक अच्छा साधन है। जब हमारे पास कोई काम नहीं होता तो हमारा दिमाग बहुत-सी अनुचित बातें सोचने में लग जाता है। इस प्रकार पुस्तकालय हमें बुरी आदतों से बचाकर अच्छा नागरिक बनाते हैं।

पुस्तकालय में वे ही लोग आते हैं जो ज्ञान बढ़ाना और अपने को सुधारना चाहते हैं। इस प्रकार पुस्तकालय में जाने से हमारी भले लोगों से भेंट होती है। इससे आपसी प्रेम भी बढ़ता है।

उपसंहार- पुस्तकालय हमारे सच्चे मित्र होते हैं। वे हमें ऊबने नहीं देते। वे हमारा मनोरंजन करते तथा ज्ञान बढ़ाते हैं।

यदि मैं प्रधानाचार्य होता

प्रस्तावना- विद्यालय वस्तुतः शिक्षा के केंद्र हैं। यदि विद्यालयों में पठन-पाठन का वातावरण ठीक नहीं है तो निश्चय ही वहाँ शिक्षक पढ़ाई के कार्य को प्रभावशाली ढंग से नहीं कर पाएँगे। विद्यालयों में शिक्षण का स्तर गिर रहा है, राजनेताओं का हस्तक्षेप होने लगा है। तथा अध्यापक उदासीन रहने लगे हैं।

यदि मैं प्रधानाचार्य होता- प्रधानाचार्य का पद विद्यालय में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। प्रधानाचार्य ही शिक्षण की योजना बनाता है। विद्यालय को सफलता के साथ संचालित करना प्रधानाचार्य का दायित्व है। यदि मैं प्रधानाचार्य होता तो अपने कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करता। मैं अपने विद्यालय में इस प्रकार सुधार करने का प्रयास करता :

सबसे पहले मैं अनुशासन पर ध्यान देता। छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों एवं कर्मचारियों को ठीक समय पर विद्यालय आने के लिए कहता। मैं स्वयं अनुशासित रहता तथा सभी के लिए आदर्श प्रस्तुत करता। ठीक समय पर विद्यार्थियों एवं शिक्षकों का आना-जाना मैं सुनिश्चित करता। मैं शिक्षा के स्तर में सुधार करता, विद्यार्थियों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान देता तथा शिक्षकों के पढ़ने के लिए ज्ञानवर्धक पुस्तकें एवं पत्रिकाएँ मँगाता तथा उन्हें पढ़ने के लिए देता। शिक्षकों से कहता कि वे पूरी तैयारी करके ही कक्षा में पढ़ाने जाएँ। मैं स्वयं भी पढाता। समय-समय पर छात्रों के अभिभावकों से भी मिलता। मैं विद्यालय में खेलकूद, स्काउटिंग, एन.सी.सी., रेडक्रास आदि को संचालित कराता। विद्यार्थियों को बोलने का पूरा अवसर देता। समय-समय पर महापुरुषों के जीवन पर गोष्ठियाँ करवाता। बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए मैं यथासंभव सभी प्रयास करता।

मैं विद्यालय की पत्रिका प्रतिवर्ष प्रकाशित करवाता, जिसमें छात्रों की स्वरचित रचनाएँ ही प्रकाशित की जातीं। मैं विद्यार्थियों में एकता, राष्ट्रप्रेम एवं सर्वधर्म समभाव की भावना का विकास करता।।

उपसंहार- विद्यालय का प्रधानाचार्य यदि शिक्षाविद् हैं तथा वह बालमनोविज्ञान को समझता है तो विद्यालय में शिक्षा का स्तर ऊँचा रहेगा। अच्छा प्रधानाचार्य विद्यालय को आदर्श विद्यालय बना देता है। यदि में प्रधानाचार्य होता तो शैक्षणिक स्तर में सुधार करता तथा अपने अध्ययन, त्याग एवं कठोर परिश्रम से विद्यालय को शिक्षा का वास्तविक केंद्र बंनाने का प्रयास करता।

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मेरे प्रिय शिक्षक

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. मेरे प्रिय शिक्षक की विशेषताएँ,
  3. उपसंहार।

प्रस्तावना- हमारे देश में शिक्षकों का सदैव से सम्मान होता रहा है। प्राचीनकाल में शिक्षा आश्रमों में दी जाती थी। आश्रमों में गुरुओं का बहुत आदर व मान होता था। राजा भी गुरु का सम्मान करता था। गुरु को गोविन्द से भी ऊँचा माना गया है। सन्त कबीर ने कहा है

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोविन्द दियो मिलाये॥

मेरे प्रिय शिक्षक की विशेषताएँ- मेरे प्रिय शिक्षक आनन्द मोहन जी हैं। वे हिन्दी विषय के विद्वान हैं। उन्होंने एम.ए., एम.एड., किया है। लगभग 35 वर्ष की अवस्था वाले तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी मेरे शिक्षक महोदय की अनेक विशेषताएँ हैं। वे छात्रों से स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं।

मेरे प्रिय शिक्षक की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि वे प्रत्येक छात्र को समान समझते हैं। कक्षा में उनके द्वारा पढाया हुआ पाठ सहज ही समझ में आ जाता है। वे किसी को पीटते नहीं हैं। शरारत करने पर वे समझाते हैं। वे हमारे साथ खेलते भी हैं। सभी छात्रों का वे पूरा ध्यान रखते हैं। कक्षा का प्रत्येक छात्र उनका सम्मान करता है। विद्यालय के प्रधानाचार्य जी भी उनका आदर करते हैं। यही सब कारण हैं कि मेरे प्रिय शिक्षक का सभी मन से सम्मान करते हैं।

उपसंहार-मेरे प्रिय शिक्षक योग्य, कर्मठ, परिश्रमी एवं व्यवहारकुशल हैं। वे अनुशासनप्रिय हैं। वे पूरे विद्यालय में ही नहीं, बल्कि हमारे नगर में भी लोकप्रिय हैं। मेरी आकांक्षा है कि वे हमें अगली कक्षाओं में भी पढ़ाते रहें।

विद्यार्थी जीवन और अनुशासन

प्रस्तावना- जिस जीवन में कोई नियम या व्यवस्था नहीं, वह मानव-जीवन नहीं पशु-जीवन ही हो सकता है। बिना किसी भय या लोभ के नियमों का पालन करना ही अनुशासन है।

अनुशासन का महत्त्व- चाहे कोई संस्था हो या व्यावसायिक प्रतिष्ठान, चाहे परिवार हो या प्रशासन, अनुशासन के बिना किसी का भी कार्य नहीं चल सकता। सेना और पुलिस विभाग में तो अनुशासन सर्वोपरि माना जाता है। विद्यालय देश की भावी पीढ़ियों को तैयार करते हैं। विद्यार्थी-जीवन ही व्यक्ति की भावी तस्वीर प्रस्तुत करता है। आज हर क्षेत्र में देश को अनुशासित युवकों की आवश्यकता है।

विद्यार्थी जीवन और अनुशासन- वैसे तो जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन आवश्यक है किंतु जीवन का जो भाग सारे जीवन का आधार है उस विद्यार्थी-जीवन में अनुशासन का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। किंतु वर्तमान समय में विद्यार्थी अनुशासनहीन होते जा रहे हैं।

अनुशासनहीनता के कारण- विद्यालयों में बढ़ती अनुशासनहीनता के पीछे मात्र छात्रों की उद्दंडता ही कारण नहीं है। सामाजिक परिस्थितियाँ और बदलती जीवन-शैली भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। दूरदर्शनी-संस्कृति ने छात्रों को समय से पूर्व ही युवा बनाना प्रारंभ कर दिया है। भविष्य के लिए उपयोगी ज्ञानवर्तमान में ही परोसना शुरू कर दिया है। सारी सांस्कृतिक शालीनता उनसे छीनी जा रही है। आरक्षण ने भी छात्र को निराश और लक्ष्यविहीन बना डाला है। अभिभावकों की उदासीनता ने भी इस विष–बेल को बढ़ाया है। अधिकांश अभिभावक विद्यालयों में बच्चे का प्रवेश कराने के बाद उसकी सुध नहीं लेते।

निवारण के उपाय- इस स्थिति से केवल अध्यापक या प्रधानाचार्य नहीं निपट सकते। शिक्षा एक सामूहिक दायित्व है, जिसकी जिम्मेदारी पूरे समाज को उठानी चाहिए। यह भी सच है कि अनुशासन किसी पर बलपूर्वक नहीं थोपा जा सकता, इसलिए दूसरों को अनुशासित रखने के लिए स्वयं भी अनुशासित रहकर आदर्श प्रस्तुत करना होगा।

उपसंहार- अनुशासन को दैनिक जीवन में बहुत महत्त्व है। अनुशासन का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक है। अनुशासन के बिना मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अनुशासन के अभाव में शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं है।

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विद्यालय का वार्षिकोत्सव

प्रस्तावना- प्रत्येक विद्यालय वर्ष में कुछ उत्सवों का आयोजन करता है। इनमें से एक उत्सव वार्षिकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। हमारा विद्यालय विजयादशमी के दिन स्थापित हुआ था। अतः प्रतिवर्ष इसी दिन हमारे विद्यालय का वार्षिक उत्सव मनाया जाता है।

विविध कार्यक्रम- हमारे विद्यालय का वार्षिकोत्सव दुर्गाष्टमी से ही प्रारंभ हो जाता है और तीन दिन तक चलता है। वार्षिकोत्सव पर विविध कार्यक्रमों के अंतर्गत अनेक प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी हमारे विद्यालय में पहले दिन खेलकूद की प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई, जिसके अंतर्गत क्रिकेट, बालीबॉल, दौड़ आदि में छात्रों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। दूसरे दिन अंत्याक्षरी तथा वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ हुईं। इन दोनों प्रतियोगिताओं में जिले के सभी विद्यालयों की टीमों को आमंत्रित किया गया। इसी दिन रात को कवि सम्मेलन व नाटक के मंचन का आयोजन भी किया गया। विद्यार्थियों ने कविता-पाठ में बहुत रुचि ली।

समापन कार्यक्रम- विजयादशमी के दिन वार्षिकोत्सव का समापन कार्यक्रम था। इस अवसर पर एक विशाल सभा हुई। इस सभा में छात्रों के अभिभावक तथा नगर के प्रमुख नागरिक उपस्थित थे। जिलाधीश महोदय सभा के अध्यक्ष थे। इस अवसर पर सभी प्रतियोगिताओं में प्रथम, दृवितीय व तृतीय स्थान पाने वाले छात्रों को पुरस्कार वितरण किया गया। साथ ही रंगारंग कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया गया। प्रधानाध्यापक महोदय ने विद्यालय की प्रगति पर प्रकाश डाला। वार्षिकोत्सव दशहरा के दिन दोपहर तक समाप्त हो गया।

उपसंहार- सभी शिक्षक, छात्र-छात्राएँ कार्यक्रम की सफलता से प्रसन्न थे। विद्यालय के वार्षिकोत्सव में सभी का पूरा सहयोग रहा। वार्षिकोत्सव का आयोजन सांस्कृतिक परंपराओं, एकता तथा विद्यार्थियों में निहित प्रतिभा-जागरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

मेरी रेलयात्रा

प्रस्तावना- प्राचीनकाल में यात्राएँ इतनी सुगम नहीं थीं जितनी कि आज हैं। नि:संदेह विज्ञान ने आज संसार को बहुत ही निकट ला दिया है। यद्यपि यात्राओं में कष्ट तो होता है किंतु नये स्थानों, प्राकृतिक दृश्यों तथा अनेक धार्मिक स्थानों के दर्शन से सारा कष्ट आनंद में बदल जाता है।

प्रस्थान- मुझे मई के आरंभ में अजमेर की यात्रा करनी पड़ी। मैंने अपनी सीट आठ दिन पूर्व ही सुरक्षित करा ली थी। मैंने अजमेर जाने की तैयारियाँ कीं और जरूरी सामान लेकर स्टेशन पर आ गया।

रेलवे स्टेशन का वर्णन- टिकट-घर पर सैकड़ों व्यक्ति पंक्तियों में खड़े टिकट ले रहे थे। कुछ लोग इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि टिकट शीघ्र मिल जाए। इसलिये कभी-कभी धक्का-मुक्की हो जाती थी लेकिन पुलिस के सिपाही शांति बनाये रखने में प्रयत्नशील थे। स्टेशन पर बड़ी भीड़ थी। प्लेटफार्म पर मेला-सा लगा हुआ था। लगभग रात के 12 बजे हमारी गाड़ी सवाई माधोपुर स्टेशन पर आई। भीड़ के कारण चढ़ने में कुछ परेशानियाँ आईं। थोड़ी देर में हमारी गाड़ी चल दी।

यात्रा का वर्णन- गाड़ी तेजी से चली जा रही थी। इधर हम पर निद्रा देवी ने अधिकार जमा लिया। प्रात:काल के 5 बजे थे, जयपुर। थोड़ी दूर ही रहा होगा कि मेरे साथी जागे और उन्होंने अपना सामान सँभालना आरंभ कर दिया। जयपुर स्टेशन पर वे लोग मुझसे विदा ले गये। कुछ क्षणों के बाद उस स्थान पर अन्य यात्री आ गये तथा उनसे परिचय आरंभ हो गया। प्रात:काल का सुहावना समय था। शीतल-मंद-सुगंध हवा चल रही थी। सूर्य की स्वर्णिम किरणें फूटने लगीं। लगभग 9 बजे मैंने अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की सुंदर एवं आकर्षक नगरी अजमेर में प्रवेश किया। गाड़ी से सामान उतारकर कुली पर रखवाकर प्लेटफार्म के बाहर आया और धर्मशाला चला गया।

उपसंहार- रेल यात्रा में बड़े आनंद आते हैं। नवीन-नवीन दृश्यों से मन मोहित हो जाता है। अपरिचित व्यक्तियों से भेंट होती है। विभिन्न प्रकार की वेश-भूषा, भाषा तथा बोलियों से परिचय होता है। इस प्रकार यात्रा करने से हमारा ज्ञान बढ़ता हैं।

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विज्ञान के चमत्कार

प्रस्तावना- आज विज्ञान का युग है। हर दिशा में विज्ञान की विजय का झंडा फहरा रहा है। हम सुबह घड़ी के अलार्म को सुनकर जागते हैं। हीटर पर गर्म किये हुए जल से स्नान करते हैं। गैस-चूल्हे पर नाश्ता और भोजन तैयार करते हैं। हमारी पुस्तकें बड़े-बड़े छापेखानों में छपती हैं। हमारे वस्त्र मिलों में बुने जाते हैं। इस प्रकार विज्ञान हमारे पूरे जीवन को प्रभावित कर रहा है।

ज्ञान एवं शिक्षा आज विद्या का जो प्रकाश दीख रहा है। वह विज्ञान के ही कारण है। हम जिन पुस्तकों, कापियों, पेन-पेंसिलों आदि का प्रयोग करते हैं वे हमें विज्ञान की कृपा से ही प्राप्त होती हैं। कैलकुलेटर के आविष्कार ने गणित के लंबे प्रश्नों को भी सरल बना दिया है। कंप्यूटर इस दिशा में उससे भी चार कदम आगे है।

यातायात- विज्ञान के आविष्कारों ने यात्रा को अत्यंत सरल और आनंददायक बना दिया है। कार, बस व रेलगाड़ी द्वारा हम दुर्गम स्थानों तक आसानी से पहुँच जाते हैं। बड़े-बड़े जलपोत समुद्र की लहरों को चीरते हुए चले जाते हैं। आज हम वायुयान द्वारा हजारों मील की यात्रा कुछ ही घंटों में तय कर लेते हैं।

समाचार- आज टेलीफोन, फैक्स, ई-मेल आदि के द्वारा सारे संसार के समाचार इधर से उधर आते जाते हैं। रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्र में दुनिया भर के समाचारों से अवगत कराते हैं।

मनोरंजन- विज्ञान ने हमारे मन-बहलाव के लिए भी हमें अनेक साधन दिये हैं। अब टेलीविजन तथा वीडियो द्वारा आवाज के साथ-साथ चित्रों का भी आनंद लिया जाता है।

चिकित्सा- एक्स-रे आदि यंत्रों के द्वारा शरीर की भीतरी बीमारी का भी ठीक-ठीक पता लग जाता है। अब बड़े-से-बड़े ऑपरेशन सफलतापूर्वक हो जाते हैं।

युद्ध- अब युद्ध-कला को भी विज्ञान ने आधुनिक बना दिया है। रडार नामक यंत्र द्वारा विदेशी आक्रमण का पहले से पता लग जाता है।

उपसंहार- आज हमारे जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है। जिस पर विज्ञान का प्रभाव न हो। अब तो वैज्ञानिक अन्य ग्रहों पर जाने लगे हैं। विज्ञान के कारण ही भविष्य में हम अपनी पृथ्वी से अन्य देशों के समान चंद्रलोक आदि की भी सैर कर सकने में सक्षम होंगे।

प्रदूषण

प्रस्तावना- प्रकृति और प्राणी का गहरा संबंध है। प्रकृति और प्राणी, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों के मध्य संतुलन रहना अनिवार्य है। यदि दोनों का संतुलन बिगड़ता है तो मानवता के अस्तित्व पर खतरा रमझ लेना चाहिए। इस संतुलन के बिगड़ने को ही प्रदूषण’ कहा जाता है।

प्रदूषण के प्रकार- मुख्य रूप से प्रदूषण के चार प्रकार हैं-

  1. स्थल प्रदूषण,
  2. वायु प्रदूषण,
  3. जल प्रदूषण,
  4. ध्वनि प्रदूषण।

सड़कों, पार्को, सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी फैलाने वाले स्थल प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। कारखानों, फैक्ट्रियों तथा वाहनों से निकलने वाला धुआँ तथा रासायनिक गैसें वायुमंडल को दूषित करके वायु प्रदूषण फैलाती हैं। जहाँ देखो वहीं गंदगी का साम्राज्य-सा हो गया है। नगरों-महानगरों के कारखानों एवं फैक्ट्रियों का प्रदूषित पानी नदियों आदि में बहकर जाता है इससे जल प्रदूषण फैलता है। सड़कों पर, सार्वजनिक स्थलों पर, पूजाघरों में लाउडस्पीकर इतने जोर-जोर से बजाये जाते हैं कि सुनने वाले परेशान हो उठते हैं। यह ध्वनि प्रदूषण है।

प्रदषण दूर करने के उपाय- प्रदूषण को दूर करना हम सबका कर्त्तव्य है। एक-दो व्यक्ति प्रदूषण से मुक्ति नहीं दिला सकते। इसे दूर करने के लिए प्रत्येक नागरिक को सचेत रहना पड़ेगा। हमें अपने पास-पड़ोस के लोगों को प्रदूषण का अर्थ एवं इससे होने वाली हानियों को समझाना चाहिए। प्रत्येक नागरिक अपना एवं अपने आस-पास का ध्यान रखें, तो प्रदूषण स्वयं ही दूर हो जायेगा। वृक्षारोपण पर और अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। उद्योगों के दूषित जल व गंदगी को नदियों और जलाशयों में नहीं मिलने देना चाहिए। वाहनों का अंधाधुंध प्रयोग रोकना चाहिए। हमें अपने घर तथा आस-पास की सफाई रखनी चाहिए तथा सफाई का महत्त्व अन्य लोगों को भी समझाना चाहिए।

उपसंहार- मानव यदि प्रदूषण की समस्या के प्रति उदासीन बना रहा तो प्रकृति के साथ किये जा रहे मानव के इस क्रूर व्यवहार का दंड उसे भुगतना ही पड़ेगा। इसलिए मानव को तुरंत सचेत हो जाना चाहिए, ताकि प्रकृति का संतुलन न बिगड़ने पाये।।

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कंप्यूटर के चमत्कार

प्रस्तावना- वर्तमान युग विज्ञान का युग है। मानव के लिए आज के युग में विज्ञान की सर्वोत्तम देन ‘कंप्यूटर है। ‘कंप्यूटर’ अर्थात् संगणक यंत्र ने मनुष्य की कार्यक्षमता में सैकड़ों गुना वृद्धि कर दी हैं। यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है।

कंप्यूटर का विकास- फ्रांस के वैज्ञानिक ब्लेस पास्कल ने सत्रहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम गणना-यंत्र के रूप में कंप्यूटर का निर्माण किया था। जर्मनी गणितज्ञ विलियम लाइबनिट्ज़ ने पास्कल के कंप्यूटर का परिष्कृत रूप निर्मित किया। इसके उपरान्त अमेरिकन वैज्ञानिक डॉ. हरमन हारलीक ने पंचकाई पर आधारित विशेष तकनीक से कंप्यूटर का निर्माण किया। नवीन स्वरूप के कंप्यूटरों में प्रथम पीढ़ी के कंप्यूटर का निर्माण सन् 1946 में अमेरिकी वैज्ञानिक जे. पी. एकर्ट एवं जे. डब्ल्यू. माउली ने किया। 1964 में तृतीय पीढ़ी के कंप्यूटर विकसित हुए। इसके बाद चौथी पीढी के सर्वाधिक विकसित कंप्यूटर का उपयोग आज पूरे विश्व के सभी क्षेत्रों में हो रहा है।

कंप्यूटर की कार्यविधि- कंप्यूटर के चार प्रमुख बाह्य अंग- मॉनीटर, सी. पी. यू., की-बोर्ड एवं माउस होते है। कंप्यूटर से मुद्रित सामग्री प्राप्त करने के लिए उसके साथ प्रिंटर भी जोड़ा जाता है। कंप्यूटर के कार्य में विद्युत अवरोध न हो इसके लिए यू. पी. एस. लगाया जाता है।

विविध क्षेत्रों में कंप्यूटर का उपयोग- रेल, बस एवं वायुयान में आरक्षण के लिए कंप्यूटर की भूमिका सराहनीय हैं। बैंकों में सभी खाताधारियों के खातों का लेखा-जोखा कंप्यूटर के माध्यम से ही किया जाता है। ए.टी.एम. कार्ड का उपयोग कर किसी भी समय कहीं भी. पैसा निकाला जा सकता है। संचार के क्षेत्र में कंप्यूटर ने ऐसा चमत्कार दिखाया है कि किसी भी प्रकार की सूचना मात्र एक बटन दबाकर प्राप्त की जा सकती हैं। विश्व के किसी भी स्थान पर मौजूद अपने मित्र अथवा संबंधी से साक्षात बात करना कंप्यूटर ने संभव कर दिया है। पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार-पत्रों का प्रकाशन आज कंप्यूटर की सहायता से शीघ्र हो रहा है। विज्ञान के बहुत-से प्रयोगों एवं गणित की जटिल समस्याओं को कंप्यूटर पर आसानी से समझाया जा सकता है। चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत-से ऑपरेशन कंप्यूटर के माध्यम से किए जा रहे हैं। मशीनी उपकरणों में खराबी कंप्यूटर के माध्यम से ठीक की जा रही हैं। शक्तिशाली अस्त्र, शस्त्र, प्रक्षेपास्त्र एवं परमाणु अस्त्र भी कंप्यूटरीकृत हो रहे

उपसंहार- इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कंप्यूटर वास्तव में आधुनिक युग का क्रांतिदूत है। इसने वह चमत्कार कर दिखाया है जिसके कारण मानव जीवन सुख व आनंद से परिपूर्ण हो गया है। सुख एवं आनंद की लालसा में मनुष्य को इसके दुरुपयोग से भी बचने की आवश्यकता है।

दूरदर्शन

प्रस्तावना- दूरदर्शन आज हमारे घरों का एक आवश्यक उपकरण बन चुका है। छोटे पर्दे के नाम से यह सिनेमा का घर-घर प्रतिनिधित्व कर रहा है। छात्रवर्ग तो दूरदर्शन का दीवाना है। उनके आचार-विचार, भाव-भंगिमा, नख-शिख-सज्जा, भाषा और व्यवहार का दीक्षा-गुरु दुरदर्शन बन चुका है।

दूरदर्शन का विस्तार- भारत में दूरदर्शन का आगमन सन् 1959 के आसपास हुआ था। तब यह मात्र वैज्ञानिक चमत्कार की वस्तु थी। केवल संपन्न व्यक्ति अथवा सरकारी प्रतिष्ठान ही इसका आनंद लेने के अधिकारी थे। किंतु पिछले पंद्रह वर्षों में दूरदर्शन सुरसा के मुख की भाँति विस्तार को प्राप्त हुआ है।।

दूरदर्शन के लाभ- आज दूरदर्शन सर्वव्यापक रूप में जनजीवन का अनिवार्य अंग बन चुका है। सामाजिक जीवन का कोई भी अंग, कोई भी क्षेत्र इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

मनोरंजन के क्षेत्र में- मनोरंजन के क्षेत्र में तो इसने अपने सभी प्रतियोगियों को पछाड़ दिया है। सिनेमा से भी सुलभ और सुविधाजनक मनोरंजन दूरदर्शन से प्राप्त होता है। घर पर निश्चिंतता से बैठकर विविध प्रकार के मनोरंजनों का लाभ और कोई उपकरण नहीं करा सकता। फिल्म, नाटक, नृत्य, कवि-सम्मेलन, विविध खेल और प्रतियोगिताएँ, दृश्य-दर्शन, पर्यटन आदि मनोरंजन के विविध स्वरूप घर बैठे उपलब्ध रहते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा के क्षेत्र में भी दूरदर्शन ने नई संभावनाओं के द्वार खोले हैं। सक्रिय और प्रभावी शिक्षण प्रणाली में दूरदर्शन का मुकाबला कोई नहीं कर सकता कृषि के क्षेत्र में- कृषि संबंधी जानकारी, मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ, पारिवारिक समस्याएँ, रसोईघर की ज्ञानवृद्धि तथा सौंदर्य-सुरक्षा आदि की जानकारी देने से दूरदर्शन की उपयोगिता सभी को अनुभव हो रही है।

राजनीति के क्षेत्र में राजनीतिक दृष्टि से तो दूरदर्शन का आज भारी महत्त्व है। जनमत के निर्माण, राजनेताओं के विचार और आचार के दर्शन, विश्वभर की राजनैतिक घटनाओं से परिचय आदि के द्वारा निरंतर राजनैतिक जागरूकता बनाये रखने में दूरदर्शन की ही भूमिका है।

व्यापार के क्षेत्र में- दूरदर्शन आज व्यापार का अभिन्न अंग बन चुका है। कौन-सा वस्त्र, कौन-सा भोजन, कौन-सी सज्जा-सामग्री, चाय, टूथपेस्ट और मसाले आपके लिए उपयोगी हैं, यह सलाह दूरदर्शन बिना कोई शुल्क लिये निरंतर दे रहा है।

दूरदर्शन से हानियाँ- दूरदर्शन का सबसे घातक प्रभाव युवावर्ग पर पड़ा है। युवक-युवतियों का खान-पान, वस्त्र, हाव-भाव, भाषा और चरित्र सभी कुछ दूरदर्शन से कुप्रभावित हो रहा है। हिंसा, अश्लीलता, उद्दंडता, शिक्षा से अरुचि, सामाजिक मर्यादाओं की उपेक्षा, बाजारू प्रेम-प्रसंग सभी कुछ दूरदर्शन ही युवाओं और छात्रवर्ग के सामने परोस रहा है। अपराध, आतंक, मानसिक तनाव आदि सभी का उत्तरदायी दूरदर्शन है। व्यापारिक विज्ञापनों द्वारा समाज को मूर्ख बनाने में भी दूरदर्शन सहायक बन रहा है। राजनीतिक दृष्टि से भी इसका दुरुपयोग हो रहा है। इसके माध्यम से सत्तारूढ़ दल के प्रचार को अधिक महत्त्व दिया जाता है।। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी दूरदर्शन हानिकारक है। निरंतर देखने से दृष्टि-ह्रास, मानसिक तनाव और आंगिक जड़ता आदि रोग भी दूरदर्शन ही दे रहा है।

उपसंहार- लाभ और हानियों पर विचार-विमर्श के पश्चात् भी दूरदर्शन की महत्त्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। हर आविष्कार का दुरुपयोग या सदुपयोग मनुष्य के ऊपर निर्भर है। दूरदर्शन के व्यापक प्रसार और प्रभाव का सदुपयोग करके उसे समाज का परममित्र, मार्गदर्शक और सहयोगी बनाया जा सकता है।

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समाचार-पत्र

रूपरेखा-

  1. प्रस्तावना,
  2. समाचार-पत्रों की आवश्यकता,
  3. समाचार-पत्रों का दायित्व,
  4. समाचार-पत्रों का रूप,
  5. उपसंहार।

प्रस्तावना-प्रात:काल उठते ही मनुष्य चाहता है कि सबसे पहले वह अखबार पढे। समाचार-पत्र आज हमारी दिनचर्या का अंग बन चुका है। कुछ लोगों के लिए तो अखबार एक नशे की तरह है। जब तक अखबार नहीं। पढ़ लिया जाता है तब तक चैन ही नहीं पड़ता।।

समाचार-पत्रों की आवश्यकता आज समाज और जीवन का हर क्षेत्र समाचार-पत्र में सम्मिलित है। समाचार पत्रों के माध्यम से हम घर बैठे देश-विदेश के समाचार प्राप्त करते हैं। समाचार-पत्र जन-चेतना का भी कार्य करते है।

समाचार-पत्रों का दायित्व-आज समाज में समाचार-पत्रों का दायित्व बहुत बढ़ गया है। केवल समाचार देना ही समाचार-पत्रों को काम नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा का भार भी इन पर आ गया है। अत: राष्ट्रीय चेतना बनाये रखना तथा देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति को सही रूप में जनता के सामने रखना भी इनका दायित्व है।।

समाचार-पत्रों का रूप-आज दैनिक समाचार पत्रों के अतिरिक्त साप्ताहिक व पाक्षिक पत्र भी प्रकाशित हो रहे हैं। हिन्दी के राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, जनसत्ता, नई दुनिया आदि प्रमुख समाचार-पत्र हैं।

उपसंहार-समाचार-पत्रों को निष्पक्ष और जनहित का ध्यान रखने वाला होना चाहिए। समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता की रक्षा करना इस दृष्टि से आवश्यक है। उन पर राजनैतिक अथवा अन्य किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए। शोषित, पीडित व अन्यायग्रस्त मानवता की आवाज बनना समाचार-पत्रों का दायित्व है। अत: समाचार-पत्रों को सदैव अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए।

मेरा प्रिय खेल (फुटबॉल)

प्रस्तावना- खेल दो प्रकार के होते हैं-

  1. स्वदेशी, जैसे- गुल्ली-डंडा, कबड्डी और
  2. विदेशी, जैसेवॉलीबॉल, फुटबॉल, टेनिस, क्रिकेट आदि।

इन खेलों में मुझे फुटबॉल विशेष पसंद है। यह एक सीधा-सादा और सस्ता खेल है तथा इसमें शरीर का अच्छा व्यायाम हो जाता है।

खेल का स्वरूप- फुटबॉल का खेल एक बड़े से चौरस मैदान में खेला जाता है, इसके खिलाड़ी दो दलों में बँट जाते हैं। आमतौर पर 11-11 खिलाड़ियों की दो टोलियाँ बना ली जाती हैं। मैदान के बीचों-बीच एक रेखा खींचकर दो भाग कर लिए जाते हैं। प्रत्येक दल को अपने सामने वाले भाग पर गोल करना होता है। एक दल (टीम) गोल करने का प्रयत्न करता है और दूसरा दल उसे रोकता है। एक खिलाड़ी गोल के निकट रहता है। उसका कार्य केवल गोल की रक्षा करना होता है, इसे गोलरक्षक या गोलकीपर कहते हैं।

गोल के अन्य खिलाड़ी अपने-अपने स्थान से गेंद को अंदर आने से रोकते हैं और दूसरे उसे गोल में ले जाने का प्रयत्न करते हैं। इस खेल का निर्णायक रैफरी कहलाता है, वही खेल को आरंभ करता है तथा वही गलती करने वाले खिलाड़ियों को टोकता व हार-जीत का निर्णय करता है सारे कार्य उसकी सीटी के संकेत पर होते हैं।

खेल का महत्त्व- स्वास्थ्य के लिए खेल बहुत आवश्यक है। खेलने से भोजन पचता है और भूख अच्छी लगती है। मेरी दृष्टि में फुटबॉल का खेल विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस खेल में शरीर को अधिक चोट लगने का डर भी नहीं रहता। फुटबॉल से शरीर का अच्छा व्यायाम हो जाता है। खेल के दो दलों में से एक जीतता है और दूसरा हारता है, किंतु इस हार-जीत से आपसी प्रेम घटने के बजाय बढ़ता है।

उपसंहार- हम बच्चों के लिए खेलों का विशेष महत्त्व होता है। खेल हमारे बढ़ते शरीरों को स्वस्थ और सुंदर बनाते हैं। हम लोग आपस में तथा दूसरे विद्यालयों की टीमों से मैच भी खेलते हैं। फुटबॉल के खेल में हमारा उत्साह दिन-दिन बढ़ता जा रहा है।

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समय का सदुपयोग या समय का महत्व प्रस्तावना- ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने।
समय चूकि पुनि का पछिताने।’

गोस्वामी तुलसीदासजी ने समय के महत्त्व की इन पंक्तियों में बड़ी सरलता से व्याख्या कर दी है। जो अपने अमूल्य समय को गप-शप या आलस्य में गंवाते हैं, वे जीवनभर पछताते हैं।

समय का महत्त्व- मनुष्य अपनी प्रत्येक नष्ट वस्तु को दोबारा पा सकता है। नष्ट हुआ धन फिर से कमाया जा सकता है, स्वास्थ्य की कमी पूरी की जा सकती है, गिरी हुई दीवार फिर से बनायी जा सकती है, उजड़ा हुआ नगर फिर से बसाया जा सकता है, किंतु बीता हुआ समय लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए हमें अपने प्रत्येक क्षण का ठीक-ठीक उपयोग करना चाहिए। यदि किसान समय पर जुताई-बुवाई, निराई-गुड़ाई, कटाई-गहाई न करे तो अच्छी फसल नहीं पा सकता। यही बात अन्य व्यक्तियों और कार्यों पर भी लागू होती है।

प्रकृति और समय- प्रकृति के सारे काम सही समय पर होते हैं। सूर्य सदा निश्चित समय पर निकलता है और छिपता है। हर ऋतु अपने समय पर ही आकर धरती को

सजाती है। भूमि में बोया गया बीज अपने समय पर ही उगता है। इसी प्रकार फूलों के खिलने, फलों के लगने और पकने के भी अपने अलग-अलग समय हैं। वसंत ऋतु आते ही कोयल गीत गाने लगती है। भोर में चहचहाने वाले पक्षी अँधेरे में अपना समय पहचान कर वापस अपने नीड़ में विश्राम करते हैं।

विद्यार्थी और समय- विद्यार्थी का समय बड़ा अमूल्य होता है। उसे थोड़े-से समय में बहुत कुछ सीखना होता है। यदि वह अपना पाठ प्रतिदिन तैयार न करे तो कक्षा में पिछड़ जाता है। जो छात्र केवल खेल-कूद में अपना समय नष्ट कर देते हैं, वे परीक्षा के समय रोते और पछताते हैं। इसी प्रकार जो उचित समय पर खेल-कूद से जी चुराते हैं वे अस्वस्थ, उदास और चिड़चिड़े हो जाते हैं।

उपसंहार- मनुष्य-जन्म बड़े भाग्य से मिलता है। हम इस जन्म में जितनी उन्नति चाहें कर सकते हैं। इसलिए हमें प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए।

लड़की बोझ नहीं है।

प्रस्तावना- ईश्वर ने नर और नारी का जोड़ा बनाया और दोनों से कहा कि जाओ, इस संसार का विकास करो। इस उत्तरदायित्व को उसने दोनों के कंधों पर बराबर-बराबर डाला। जब तक दोनों अपने-अपने आदर्शों पर चले, तब तक भारतीय संस्कृति को आदर्श स्वरूप देते रहे, किंतु मध्यकाल तक आते-आते स्थिति डाँवाडोल हो गई।

लड़की को बोझ मानने की सोच- नर की कठोरता और शक्ति ने उसमें अभिमान उत्पन्न कर दिया। पूरे समाज का कर्ता-धर्ता वह स्वयं को ही मानने लगा। पुरुष ने स्त्री की कोमलता के कारण उसे अपने अधीन बनाया और अपनी आज्ञानुसार उसे चलाने लगा। परिणामत: नारी सामाजिक गतिविधियों और शिक्षा से वंचित होती गई और एक दासी और मशीन की तरह घर की चारदीवारी में बंद करके रख दी गई। अब स्त्री के सारे कार्यों का निर्णायक भी पुरुष ही बन गया। लड़की माता-पिता को बोझ लगने लगी तथा उनमें किसी भी प्रकार उसका विवाह कर इस बोझ से मुक्त होने की भावना पनपने लगी।

परिवर्तन की लहर- आज समय ने पुनः करवट ली हैं। नारी चेतना जाग्रत हुई है। कर्त्तव्य तो वह युग-युग से निभाती चली आई थी, अब उसे अपने अधिकार का भी ज्ञान हुआ है। समाज से संघर्ष करके, त्याग और साधना से उसने सिद्ध कर दिया है कि वह कोई बोझ नहीं है। उसमें न तो बुद्धिं की कमी है, न प्रतिभा की। इनके जीते-जागते उदाहरण हैं- इंदिरा गाँधी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, किरन बेदी, सानिया मिर्जा, झूलन गोस्वामी आदि। आज की शिक्षित लड़कियों को सरकारी पद मिलने के साथ-साथ प्राइवेट कंपनियों में भी अच्छी से अच्छी नौकरियाँ मिल रही हैं।

उपसंहार- आजकल पढ़-लिखकर लड़की अपना बोझ तो क्या, अपने परिवार का बोझ भी अपने कंधों पर उठाने की सामर्थ्य रखती है। अतः माता-पिता और समाज को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि लड़की बोझ नहीं है, अपितु समाज का एक मजबूत स्तंभ है।

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बालिका शिक्षा

प्रस्तावना- भारतीय समाज में विदुषी महिलाओं की कोई कमी नहीं रही है परंतु मध्यकाल में नारी की इतनी दुर्दशा हो गयी थी कि उसे ‘शिक्षा’ जैसे मौलिक अधिकार से भी वचत कर दिया गया।

बालिका शिक्षा की स्थिति- नगरों में तथा बड़े गाँवों में आज बालिका शिक्षा की स्थिति में काफी सुधार दिखाई दे रहा है, परंतु छोटे-छोटे गाँवों तथा अत्यंत दूर के ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी स्थिति वही है। लड़कियाँ बड़ी हुई तो घर के काम-काज, चौका-चूल्हा आदि में लगा दी जाती हैं। सामान्य धारणा है कि कौन-सी पढ़ा-लिखाकर नौकरी करानी हैं।

बालिका शिक्षा का महत्त्व- जिस देश के बालक और बालिकाएँ दोनों शिक्षित होंगे, उस देश की प्रगति में चार-चाँद लग जायेंगे। बालिकाओं को तो बालकों से बड़ा दायित्व निभाना होता है। वे ही बड़ी होकर पत्नी और माँ का स्थान प्राप्त करती हैं। एक अशिक्षित पत्नी भला अपने परिवार को किस प्रकार एक आदर्श रूप दे सकती है या अशिक्षित माँ, अपनी संतान को किस प्रकार योग्य और शिक्षित कर सकती हैं। अत: समाज के पूरे विकास के लिए बालिकाओं का शिक्षित होना अनिवार्य है।

बालिका शिक्षा का प्रयास- आज हमारी सरकार, बालिका शिक्षा पर काफी ध्यान दे रही है। इनके लिए अनेक पाठ्यक्रम नि:शुल्क भी चला रही है। देश और प्रांतों में निजी शिक्षण संस्थाएँ भी बालिकाओं के लिए उच्च स्तर तक रोजगारपरक शिक्षा का प्रबंध कर रही हैं। शिक्षा के बल पर ही नारियाँ हर क्षेत्र में उच्च पदों पर आसीन होती जा रही हैं। परंतु अभी भी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना बाकी हैं।

उपसंहार- बालिकाओं में गार्गी, मैत्रेयी, सावित्री, सीता, लक्ष्मीबाई, इंदिरा गाँधी, सुनीता विलियम्स, सानिया मिर्जा, किरन बेदी, कल्पना चावला, बचेंद्री पाल जैसी न जाने कितनी प्रतिभाएँ छिपी हैं। अतः उन्हें शिक्षित करके हमें सामाजिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

वनों का महत्व।

प्रस्तावना- आदिकाल से ही ईश्वर ने प्रकृति को खूब हरा-भरा बनाया था। उस समय का वातावरण स्वच्छता और स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम था। वन इस वातावरण के जनक थे। अतः वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर वनों का होना अत्यावश्यक है।

वनों से लाभ- वन संसार को हरीतिमा, वन्य-संपदा और शुद्ध पर्यावरण प्रदान करते हैं। वन्य पशुओं की क्रीड़ा-केलि के स्थान वन ही हैं। आकाश में छाये हुए काले बादलों को बरसने के लिए प्रेरित करने वाले वन ही हैं और वन से ही बाढ़, अकाल आदि संकटों से बचाव होता है। वन मानव-जीवन के लिए प्राणदायी वायु ऑक्सीजन को प्रचुर मात्रा में छोड़ते हैं और प्राणियों द्वारा श्वसन क्रिया से बाहर निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड को ग्रहण करते हैं। अत: वायुमंडल में संतुलन बना रहता है। मधुर, सुस्वादु फलों से लदे रहने वाले वृक्ष हमारे जीवनदाता भी हैं।

वन बरसात के जल को पृथ्वी में संरक्षित करते हैं। इससे एक तो भूमि का कटाव नहीं होता, दूसरे भूमि के अंदर जल प्रचुर मात्रा में संग्रहीत हो जाता है। यदि वन जल का संरक्षण नहीं करें तो जल बहता हुआ समुद्र में चला जाएगा और भू-जल का अभाव हो जाएगा। इससे भूमि का कटाव भी प्रारंभ होगा और भूमि का उपजाऊपन समाप्त हो जाएगा।

वनों को काटना- बर्बादी को निमंत्रण- वनों का हमारे जीवन में इतना महत्त्व होते हुए भी मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थ के वशीभूत होकर, वृक्ष काटकर वन उजाड़ने में लगा हुआ है। इस प्रकार वनों को उजाड़कर एक ओर तो वह वन्य पशुओं को बेघर कर रहा है वहीं दूसरी ओर स्वयं भी वन-संपदा से वंचित हो रहा है। वह अतिवृष्टि, अनावृष्टि और भूकंप आदि को स्वयं ही निमंत्रण दे रहा है। शुद्ध वायु के अभाव में जीवन कितना नारकीय है, इसे भुक्तभोगी ही जानता है।

उपसंहार- अत: जीवन के लिए वनों की उपयोगिता समझते हुए हमें वृक्षों की सुरक्षा और वनों का संरक्षण करना चाहिए।

RBSE Class 7 Hindi रचना निबंध

स्वच्छ भारत : स्वस्थ भारत
अथवा
भारत में स्वच्छता अभियान

प्रस्तावना-मन में जो स्थान पवित्रता का है, तन में वही स्वच्छता का है। मन आन्तरिक मनोभावों और विचारों का तथा बाह्य सांसारिक वातावरण का सूचक है। जीवन में हम अनेक वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। उनका अपशिष्ट हमारे आस-पास को अस्वच्छ बनाता है। इस अस्वच्छता को दूर करने के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास करने होते हैं।

भारत में स्वच्छता-अस्वच्छता भारत की एक विकट समस्या है। हमारी संस्कृति में मन की पवित्रता पर जितना जोर दिया गया है, उतना जोर बाह्य परिवेश की स्वच्छता पर नहीं रहा है। परिणामस्वरूप भारतीय लोग अस्वच्छता से इतने चिन्तित दिखाई नहीं देते। अस्वच्छता ग्रामीण तथा शहरी दोनों ही स्थानों पर दिखाई देती है।

अस्वच्छ गाँव और शहर-गाँव अस्वच्छ हैं। वहाँ पक्की गलियों, नालियों के अभाव के साथ ही कूड़े के निस्तारण के प्रबन्ध की भी समस्या है। गाँवों में इस अस्वच्छता के दुष्प्रभाव से कुछ मुक्ति इस कारण मिल जाती है कि वहाँ प्रकृति स्वयं स्वच्छीकरण का कर्तव्य निभाती है। नगरों में। आबादी ज्यादा होने से हर दिन भारी मात्रा में कूड़ा निकलता है। गली-मुहल्लों से लेकर सड़कों तक की झाड़-पोंछ करना और कूड़ा-कचरा उठाना, उसको डलाबघर तक पाँचाना, उसके निष्पादन की व्यवस्था करना, गंदे पानी को नालियों-नालों से होकर जाने और उसको स्वच्छ बनाकर सिंचाई आदि के काम में लाने की व्यवस्था करना आदि कार्य नगरपालिका आदि सार्वजनिक संस्थाएँ करती हैं।

गाँवों में शौचालय की घरों में व्यवस्था नहीं होने से परेशानी तो होती है किन्तु खुले में शौच जाने से होने वाली अस्वच्छता उतनी भयावह नहीं होती जितनी शहरों में होती है। शहरों में जिन घरों में शौचालय नहीं हैं, वहाँ के निवासियों को सड़कों, रेलवे लाइनों तथा खाली पड़े मैदानों, नाले-नालियों के किनारे शौच करते देखा जा सकता है। धन के अभाव में सभी के लिए सीवर की व्यवस्था करना संभव नहीं हो पा रहा है।

अस्वच्छता और अस्वास्थ्य-अस्वच्छता का अस्वस्थता से गहरा नाता है। स्वच्छता की कमी से तरह-तरह के रोग लोगों में फैलते हैं। संसार में अनेक देशों में शिशु और मातृ मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। भारत भी उनमें से एक है। इसको घटाने का प्रयास हो रहा है। नई दिल्ली में इस विषय में वैश्विक सम्मेलन हुआ था। भारत में 1990 में पाँच साल से कम आयु के एक हजार में से 126 शिशुओं की मृत्यु हो जाती थी। सन् 2013 में भारत की इस संख्या को घटाकर 49 तक लाने में सफलता मिली है। इस बीच शिशु मृत्यु दर सालाना 6.6 प्रतिशत घटी है। प्रसव के समर मरने वाली महिलाओं की संख्या जो 1990 में 560 प्रति १जार थी वह भी घटकर अब 67 रह गई है। अभी भी भारत इस अस्वच्छता से होने वाले अनेक रोगों को रोकना अभी बहुत बड़ी समस्या है।

स्वच्छता अभियान-भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी ने स्वच्छता अभियान चलाकर देश के नागरिकों को इससे जुड़ने का आह्वान किया है। स्वच्छता की जिम्मेदारी सरकारी संस्थाओं की ही नहीं प्रत्येक नागरिक की भी है। हमारे आस-पास जो गन्दगी फैली दिखाई देती है उसका कारण हमारी आदतें भी हैं। हम चाहे जहाँ कूड़ा फेंकते हैं और गन्दगी फैलाते हैं। खाते-खाते केलों के छिलके सड़कों पर फेंकना हमारी आदत हैं। मैंने एक विदेशी को देखा जो केले खाते हुए पैदल चल रहा था और छिलके अपने कन्धे पर लटके थैले में डाल रहा था, अपने आस-पास की सफाई स्वयं करना अन्य देशों में बुरा नहीं माना जाता है। महात्मा गाँधी अपने आश्रम में शौचालय को भी साफ करना बुरा नहीं मानते थे।

महान् कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द सबेरे अपने घर की झाडू स्वयं लगा लेते थे। भारत में चलने वाले स्वच्छता अभियान का लक्ष्य लोगों में यही भावना पैदा करना है कि वे अपने घरों और आस-पास की सफाई करने की आदत डालें। ऐसा करने से हम अपने तथा अपने बच्चों के स्वास्थ्य के हित में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकेंगे। उपसंहार-उत्तम स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता आवश्यक है। अपने स्कूल, घर, दफ्तर, कारखाने आदि को स्वयं साफ करने का आदत हमें स्वच्छता के विषय में आत्म-निर्भर बनायेगी। इससे हमारे परिवेश में जो परिवर्तन होगा, वह हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हितकारी होगा। यद्यपि कठोर दण्ड-व्यवस्था द्वारा भी अस्वच्छता को रोका जा सकता है। किन्तु स्वच्छता की आदत बनाना एक उत्तम उपाय है।

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