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RBSE Solutions for Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 नदी, आस्था और कुम्भ

Rajasthan Board RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 नदी, आस्था और कुम्भ

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न 1.
कुम्भ मेला कितने वर्ष में आयोजित होता है?
(क) बारह
(ख) तीन
(ग) सात
(घ) पाँच।
उत्तर:
(क) बारह

प्रश्न 2.
गिरनार को किसने भव्यता प्रदान कराई?
(क) अगस्त्य ने
(ख) अनुसूया ने
(ग) दत्तात्रेय ने
(घ) ब्रह्मा ने।
उत्तर:
(ग) दत्तात्रेय ने

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 3.
कल्पवास किसे कहते हैं?
उत्तर:
माघ के पूरे मासे कुम्भ-स्थल त्रिवेणी के तट पर निवास करना और मकर-संक्रान्ति पर स्नान करना ‘कल्पवास कहा जाता है।

प्रश्न 4.
निम्न को स्पष्ट कीजिए
1. चार धाम
2. सात पुरियाँ
3. पाँच काशी
4. सप्त सिन्धु
5. पाँच सरोवर
6. पाँच क्षेत्र।
उत्तर:

  1. चार धाम – बदरीनाथ, द्वारकापुरी, रामेश्वरम् और जगन्नाथ पुरी।
  2. सात पुरियाँ – काशी, कांची, मायापुरी, द्वारावती, अयोध या, मथुरा और अवन्तिका।
  3. पाँच काशी – वाराणसी, गुप्तकाशी, उत्तरकाशी, दक्षिणकाशी और शिवकाशी।।
  4. सप्त सिन्धु – गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, काबेरी और सिन्धु नदियों की धारा से जलमग्न सात जल-क्षेत्र। (‘सिन्धु’ शब्द का अर्थ नदी भी होता है।)
  5. पाँच सरोवर – पुरुषोत्तम सरोवर, नारायण सरोवर, पम्पा सरोवर, पुष्कर सरोवर और मानस सरोवर।
  6. पाँच क्षेत्र – कुरुक्षेत्र, हरिहर क्षेत्र, प्रभास क्षेत्र, रेणुका क्षेत्र तथा भृगु क्षेत्र।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 5.
“तीर्थ ईश्वर का भावना शरीर है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ईश्वर तो निराकार है। इसका कोई हाड़-माँस का शरीर नहीं हो सकता। अतः तीर्थ में ईश्वर की भावना कर लेने को, उसे ईश्वर का शरीर होना कहा गया है। तीर्थ के अंग हैं- भूमि, नदी, सरोवर, पर्वत, वनस्पति, देवालय आदि । इन सभी में ईश्वर की कल्पना करना साक्षात् ईश्वर के दर्शन करना है, उसे नमन करना है। यही तीर्थ को ईश्वर का भावना शरीर बनाता है।

प्रश्न 6.
तलाश की राह खोलते हैं।” कथन की सार्थकता में तव दीजिए।
उत्तर:
जीवन के श्रेष्ठ आदर्शों और मूल्यों को प्राप्त करना ही अमृत की तलाश है। कुम्भों के स्थानों में ऋषि-मुनियों के द्वारा शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि पर चर्चाएँ होती थी। इन्हीं चर्चाओं में से जीवन को सफल बनाने की राह निकलती थी। यही अमृत की तलाश की राह खोलना था।

प्रश्न 7.
लेखक ने आधुनिक तीर्थ किसे कहा है? उनका समाज र क्या प्रभाव पड़ा है?
उत्तर:
बड़े-बड़े बाँधों और विशाल उद्योगों को स्वतन्त्र भारत का आधुनिक तीर्थ कहा गया है। मानव जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने में जैसे तीर्थों से प्रेरणा मिलती है, उसी प्रकार ये निर्माण भी देश के विकास और सम्पन्नता में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे थे।

प्रश्न 8.
नदी और नहर का वैयक्तिक जीवन पर क्या नि-लि प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
भारत में नदी का मानव जीवन में सदा से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इन नदियों के तट पर ही तीर्थ स्थापित होते थे। इन तीर्थों में बैठकर ही मनुष्य अपनी बुद्धि को निर्मल बनाते थे। यहीं पर आपसी मतभेदों को शांति से सुलझा लेने के उपाय खोजे जाते थे। इसके विपरीत उसी नदी से निकली नहरे आज आपसी द्वेष-भाव और स्वार्थ सिद्धि का कारण बन गई हैं। नहरों के पानी को लेकर, गाँव-गाँव में झगड़े, झंझट और मुकदमेबाजी होती आ रही है।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 निन्द्रावक प्रश्न

प्रश्न 9.
ऊपर-ऊपर ही सही तीर्थ को आज की खिड़की से इतिहास में देख रहे हैं।” कथन को पाठ के आधार पर समझाइए।
उत्तर:
समय के साथ तीर्थों की महिमा जाती रही है। अब लोग यहाँ जीवन को समझने, लोक-शिक्षा लेने और देश-धर्म को समझने के लिए नहीं आते हैं। वे पर्यटन स्थल बन गए हैं। सरकारों और स्थानीय नगरपालिकाओं की आमदनी के साधन बन गए हैं। अत: लोग तीर्थों में ऊपरी मन से आते हैं। उनके ‘प्रति पज्य भाव पहले जैसा नहीं रहा। फिर भी लोग तीर्थों के आज के स्वरूप के माध्यम से उनके प्राचीन ऐतिहासिक रूप को याद कर लेते हैं। जो लोग्र स्वयं को पूरी तरह आधुनिक विचारों वाला मानते हैं वे भी भीतर से एक दबाव का अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं कि तीर्थ में आकर कुछ तो अच्छा कर लिया जाय। इसी दबाव में वे कुछ क्षण के लिए नदी के पानी में डुबकी लगाकर, तीर्थयात्रा को सफल मान लेते हैं।

प्रश्न 10.
नदी किनारे के जल प्रवाह में देश के मौलिक करंट को महसूसता है।” कथन के आधार पर स्नान और कु के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुम्भ के पर्व में पहुँचा व्यक्ति वहाँ की अपार भीड़ में पूरे भारत के दर्शन करता है। उस भीड़ में अनेक समूह दिखाई देते हैं। कुछ केवल साथ-साथ खड़े हैं। कुछ ने स्वयं को एकत्र कर रखा है और कुछ लोग समान भावनाओं में मग्न नजर आते हैं। ये ही लोग उस कुम्भ को पर्व का रूप दे रहे हैं। वह दर्शक स्वयं भी इस सब में मिल जाना चाहता है। इस भावना के साथ जब उसकी दृष्टि नदी किनारे की जलधार पर पड़ती है तो उसे अचानक लगता है जैसे उसके तन-मन में कोई ‘करंट दौड़ गया हो। यह और कुछ नहीं, अपने देश की मूल भावना की तीव्रता और गहराई से पहचान होने का करंट है। उसे अनुभूति होती है कि मैं भी इस विराट भारत का एक अंग हूँ। अपने आप से पहचान कराना ओढ़ी हुई ‘आधुनिकता’ से बाहर लाकर देशवासी को उसकी जड़ों से पहचान कराना, यही तीर्थों, स्नानों और पर्वो का मूल उद्देश्य था और आज भी हो सकता है।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘‘मुस्कान और तृप्ति का लहजा एक-सा है।” इस कथन का भाव क्या है?
उत्तर:
भाव है कि कुम्भ में आए लोगों की वेश-भूषा, भाषा, स्तर, चमक-दमक भले ही अलग-अलग हैं लेकिन तीर्थ और पर्व में भाग लेने की प्रसन्नता और संतोष सबको एक जैसा है।

प्रश्न 2.
लेखक के अनुसार हिन्दुस्तान का ‘मौलिक करंट’ क्या है?
उत्तर:
लेखक के अनुसार, अपने को सबमें मिलाकर देखने का भाव ही हिन्दुस्तान का मौलिक करंट’ है।

प्रश्न 3.
प्राचीन समय में ऋषियों के आश्रमों में क्या गतिविधियाँ चलती थीं?
उत्तर:
वहाँ लोग ऋषियों का बड़ा सम्मान करते थे और जीवन की समस्याओं के हल तथा उपयोगी शिक्षाएँ पाते थे।

प्रश्न 4.
‘नदी, आस्था और कुंभ’ निबन्ध की रचना किस उद्देश्य से की गई है ?
उत्तर:
इस निबन्ध की रचना भौतिकता के पीछे आँखें मूंदकर भागने वालों को भारतीयता की ओर आकर्षित करने के लिए की गई है।

प्रश्न 5.
तीर्थस्थल आजकल किस रूप में दिखाई देते हैं ?
उत्तर:
तीर्थस्थल आजकल पर्यटन स्थल के रूप में बदल गये हैं तथा सरकारों और स्थानीय निकायों की आमदनी का स्रोत बन गए हैं।

प्रश्न 6.
‘स्नान बाहर-बाहर ही हो रहा है।’ का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
लोग पर्वो पर नदियों में स्नान करके परम्परा का पालन ही कर रहे हैं। उनके मन को वहाँ स्नान करने से जो शांति मिलती है वह नहीं मिल रही है।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 लघूत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कुम्भ में लोग क्या-क्या मनोकामनाएँ लेकर आए हैं? पाठ के आधार पर लिखें।
उत्तर:
कुम्भ आने वाला किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता चाहता है कि कुम्भ स्नान के पुण्य के बदले वह विधायक बन जाय। विधायक मन्त्री, मन्त्री मुख्यमन्त्री और मुख्यमन्त्री प्रधानमन्त्री बनने का सपना देख रहा है। इसी प्रकार पवित्र नदी में स्नान करने वाला रोगी भी आस लगाए है कि स्नान करके बाहर निकलते ही उसकी कुरूप त्वचा, सोने जैसी हो जाएगी। दूर-दूर से आए गरीब और दुखी लोग भी सुख की आशा लिए यहाँ आए हैं।

प्रश्न 2.
तीर्थों का विकास कैसे हुआ? इस बारें में ‘नदी, आस्था और कुम्भ’ निबन्ध में क्या कहा गया है ? लिखिए।
उत्तर:
लेखक के अनुसार जिन स्थानों पर देश के महापुरुषों ने लोकहित के महान कार्य किए तथा ऋषियों ने तप किए, वे ही स्थान समय बीतने पर तीर्थ के रूप में विकसित हुए। उन दिनों ऋषि अपने शिष्यों और गायों के साथ भ्रमण किया करते थे। वे नदियों के किनारों की हरी-भरी और खुली भूमि पर ठहर जाते थे। आसपास के लोग उनके पास उपदेश सुनने और शिक्षाएँ प्राप्त करने आते रहते थे। इसी प्रकार तीर्थों की नींव पड़ जाती थी।

प्रश्न 3.
पर्वो और तीर्थों का मुख्य उद्देश्य क्या रहा है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लेखक मानता है कि धार्मिक कार्य होने के अलावा, पर्व और तीर्थयात्राओं का असली उद्देश्य जीवन के रहस्यों से पर्दा हटाना और मनुष्य के आगामी जीवन को सुखी बनाना है। पहले जब लोग पर्वो और तीर्थों से घर लौटते थे तो वे मन में थकान दूर हो जाने, नई शक्ति जागने, नई समझदारी आने और नया उत्साह भर जाने का अनुभव करते थे।

प्रश्न 4.
तीर्थों और नदी-घाटों पर लगने वाले मेलों और पर्वो के स्वरूप में क्या परिवर्तन आ गए हैं ? पाठ नदी, आस्था और कुंभ के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
समाज का झुकाव अब भौतिकवादी जीवन-शैली की ओर बढ़ गया है। तीर्थों के प्रति पहले जैसी आस्था नहीं रह गई है। अब लोग मेला देखने, घूमने-फिरने के लिए तीर्थों और कुम्भों में जाते हैं। ये मेले और पर्व पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं। ये सरकारों और नगरपालिकाओं की आमदनी के साधन बन गए हैं। तीर्थयात्रियों को लूटने और ठगने के केन्द्र बन गए हैं।

प्रश्न 5.
‘कुछ अच्छा करने की दबिश’ से लेखक का क्या आशय है? क्या आपके अनुसार पर्वो और कुम्भों की अब भी कोई सामाजिक और धार्मिक उपयोगिता है?
उत्तर:
तीर्थों और धार्मिक आयोजनों का रूप अब अधार्मिक होता जा रहा है। इतने पर भी लाखों लोग कुम्भों में भाग लेने आ रहे हैं। लेखक के अनुसार लोगों में एक भीतरी दबाव काम करता है कि तीर्थ या पर्व में आए हैं तो तीर्थ के अनुरूप कुछ अच्छा काम भी कर लिया जाए। इसीलिए वे क्षणभर के लिए ही सही, नदी की धारा में डुबकियाँ लगा लेते हैं। यही इनकी उपयोगिता है।

प्रश्न 6.
‘नदी, आस्था और कुम्भ’ निबन्ध आपको क्या सन्देश देता है? लिखिए।
उत्तर:
यह निबन्ध हमें सन्देश देता है कि हम अपनी संस्कृति से जुड़े रहें। आधुनिक विचारों और भौतिक सुख-सुविधाओं को अपनी देसी विशेषताओं पर हाबी न होने दें। तीथों को उनका पुराना गौरव वापस दिलाने में सहयोग करें। ऊपरी भिन्नताओं को महत्व न देकर एक ही भारतीयता की भावना को मन से अपनाएँ।

RBSE Class 9 Hindi प्रबोधिनी Chapter 8 निबन्धात्मक प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या धर्म और राष्ट्रीय भावना एक-दूसरे के विरोधी हैं? ‘नदी, आस्था और कप’ निबन्ध के लेखक के इस बारे में क्या विचार हैं? लिखिए।
उत्तर:
लेखक ने इस निबन्ध में धर्म और राष्ट्र के सम्बन्ध पर भी विचार किया है। लेखक की यह निश्चित राय है कि धर्म से राष्ट्र बड़ा या महत्वपूर्ण है। राष्ट्र है तो धर्म है, तीर्थ हैं, पर्व, स्नान और कुम्भ हैं। इन धार्मिक आयोजनों का मूल उद्देश्य भी भारतीय जन में राष्ट्रीय एकता के भाव को जगाना और सुरक्षित बनाए रखना है। मेलों और कुम्भों में जाने वाला हर व्यक्ति वहाँ पर जुटी लाखों लोगों की भीड़ को देखकर सोचता है कि मैं भी इस छोटे भारत का एक अंग हूँ। वहीं वह अपने देश की मूल चेतना (मौलिक करंट) से परिचित होता है। अत: धर्मपालन और राष्ट्रीय भावना परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक हैं।

-डॉ. श्रीराम परिहार

पाठ-परिचय

इस पाठ में लेखक ने भारतीयता क्या है, भारत की प्राचीन काल से चली आ रही परम्पराएँ क्या हैं, इस पर प्रकाश डालते हुए, बताया है कि भारत के जन-जीवन में कुंभ-स्नान, नदी-स्नान, तीर्थों और आस्था का बहुत महत्व रहा है। लेखक का मानना है कि कुंभ जैसे समारोहों में ही भारतीय संस्कृति की अनेकताओं में एकता की मौलिक भावना नजर आती है। यहाँ व्यक्ति केवल श्रद्धा भाव से ही नहीं आता अपितु सभी बाहरी भेद-भावों को भुलाकर भारतीयता के भाव से एकाकार होने के लिए भी आता है।

शब्दार्थ-महसूसना = अनुभव करना। हृदय-यात्रा = भावना। चेहराहीन = एक रूप। गुन्ताड़ा = प्रयत्न। जुगत = प्रबंध। लफड़े = झंझट। दहपेल = जमकर। चिलकना = चमकना। वृत्त = घेरा। अस्मिता = उपस्थिति। मौलिक करंट = मूल भावना, मूल चेतना। कतरा = छोटा-सा टुकड़ा। जज्बाती = भावुक। बेरीकेट्स = बाधाएँ। दरिया = नदी। फना होना = डूब जाना, एक हो जाना। पाकीज़ा = पवित्र। उपादान = अंग। बाजू = हाथ, बंगल। होच-पोच = अव्यवस्थित। इजाफा = बढ़ोत्तरी, वृद्धि। वर्ग-संघर्ष = समाज के विभिन्न वर्गों के बीच तनाव। तब्दील होना = बदल जाना। भक्क = स्वच्छ, सही। विशिष्ट द्वार = विशेष लोगों के लिए बनाया गया द्वार। जमात = समूह। विचार-प्रसारण = विचारों को फैलाना। आयातित सोच = विदेशी विचारधारा। दबिश = दबाव।

प्रश्न 1.
डॉ. श्रीराम परिहार का जीवन परिचय संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
लेखक परिचय जीवन परिचय-डॉ. श्रीराम परिहार का जन्म मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले के गाँव फेफरिया में 16 जनवरी, सन 1952 ई. में हुआ था। उनके पिता कृषक थे। आपने हिन्दी में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से हिन्दी ललित निबन्ध : स्वरूप एवं परम्परा का अनुशीलन’ विषय पर डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की है। आप खण्डवा में माखनलाल चतुर्वेदी शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य पद पर कार्यरत रहे हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ. परिहार कुशल निबन्धकार हैं। आपने अपने निबन्धों में भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों का आधुनिक सन्दर्भो में महत्व प्रतिपादित किया है। आपने ललित निबन्धों की रचना की है। आप अर्धवार्षिक पत्रिका ‘अक्षत’ का सम्पादन तथा प्रकाशन कर रहे हैं। रचनाएँ-आँच अलाव की, चौकस रहना है, अँधेरे में उम्मीद, धूप का अवसाद, बजे तो वंशी पूँजे तो शंख, ठिठके पल पाँखुरी पर, रचनात्मकता और उत्तर परम्परा, रसवंता बोलो तो, झरते फूल हरसिंगार के, हंसा कहो पुरातन बात, संस्कृति सलिला नर्मदा, निमाड़ी साहित्य का इतिहास, भय के बीच भरोसा, परम्परा का पुनराख्यान, ललित निबन्ध : स्वरूप एवं परम्परा, शब्द-शब्द झरते अर्थ इत्यादि।

महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए

1. मुस्कान और तृप्ति का लहजा एक-सा है। श्रद्धा के ठाठ निराले महसूसने की हृदय-यात्रा सब में निरंतर है। बहते जल में स्नान कर तीर्थ बनने की नहीं, तीर्थ जानने-समझने की बारीक ललक आँखें खोल रही है। पश्चिमी सभ्यता व्यक्ति के ऊपर से उतरकर, किनारे ढेर हैं। आदमी जल में है। आदमी प्रवाह में है। जल, प्रवाह और उसके विराट में आदमी स्वयं को छोड़ रहा है। विशाल जन-समूह का नदी में नहाना-स्नान-पर्व हो रहा है। भीड़ चेहरा हीन होकर अनुभूत हो रही है। (पृष्ठ-58)

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी प्रबोधिनी’ के ‘नदी, आस्था और कुम्भ’ नामक पाठ से लिया गया है। कुम्भ-स्नान के अवसर पर अनेक भिन्नताओं वाले श्रद्धालु एक ही प्रकार की धार्मिक आस्था और विश्वासों से प्रेरित दिखाई दे रहे हैं। व्याख्या-वेश-भूषा, भाषा, स्तर और बाहरी चमक-दमक में अलग-अलग दिखने वाले ये कुम्भ-स्थल पर उपस्थित देशवासी, अनेक बातों में समान दिखते हैं। इनके मुंखों पर कुम्भ-स्नान का सुअवसर पाने की एक जैसी मुस्कराहट थिरक रही है।

इनके मन धर्मपालन के विश्वास से बड़े संतुष्ट दिखाई दे रहे हैं। स्नान, ध्यान तथा दर्शन आदि अनेक प्रकार से श्रद्धा प्रदर्शन का अनुभव पाने की भावना, सबके हृदय में बनी हुई है। नदी के जल में स्नान करके पवित्र हो जाने से अधिक इनके मन में तीर्थ का परिचय और महत्व जानने की ललक बनी हुई है। यहाँ तीर्थ में कुम्भ के अवसर पर आने वाले इन सभी लोगों ने अपनी विदेशी वेशभूषा उतारकर नदी किनारे डाल दी है। दूर-दूर तक लोग नदी में स्नान करते दिखाई दे रहे हैं। लगता है जल, जलधारा और उसके विशाल परिदृश्य में आदमी अपने आप को भूल रहा है। हजारों और लाखों की संख्या में लोगों का एक साथ नहाना ही पर्व बन गया है। इस अपार भीड़ को चेहरों में पहचान पाना कठिन हो गया है। भीड़ ही, इस भीड़ का रूप हो गई है।

विशेष-
(1) भाषा में बोलचाल की शब्दावली का प्रयोग हुआ है। ‘महसूसना’, ‘किनारे ढेर है’, ‘विराट में स्वयं छोड़ना’ तथा ‘भीड़ चेहरा होने’ जैसे नए प्रयोग हैं।
(2) वर्णनात्मक, चित्रात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैली उपस्थित है।

2. बाहर-बाहर व्यवहार आधुनिक होने का है। एक आदमी आँखों में भारतवर्ष को देखता है। उसमें लोगों, भीड़नुमा लोगों, समूहनुमा लोगों, एकीकृत लोगों, भावों के वृत्त में खड़े स्वाभाविक लोगों और कुल मिलाकर एक पर्व बनते लोगों को देखता है। वह इनमें मिल जाना चाहता है। वह जल की बूंद-बूंद में व्यक्ति की अस्मिता परखता है। वह नदी किनारे के जल प्रवाह में देश के मौलिक करंट को महसूसता है। (पृष्ठ-59)

संदर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी प्रबोधिनी’ के ‘नदी, आस्था और कुम्भ’ नामक पाठ से अवतरित है। लेखक ने इस अंश में पाठकों को कुम्भ-स्थल में जुटे मानव समुदाय में लघुभारत का दर्शन कराया है।

व्याख्या-कुम्भ-पर्व के विविधतापूर्ण दृश्य को देखने वाला, भले ही ऊपर से अपने व्यवहार को आधुनिक जैसा दिखाए लेकिन जब वह सामने दृष्टि डालता है, तो उसे अपने आगे एक मिनी भारत दिखाई पड़ता है, जो कहीं सामान्य लोगों के रूप में, कहीं भीड़, कहीं एक समूह के रूप में दिखाई दे रहा है। कहीं इकट्ठे किए गए लोगों और कहीं भावों के घेरे में डूबे साधारण लोगों के रूप में भारत नजर आ रहा है। यही लघुभारत उसे एक पूरे पर्व के रूप में बदलता दिखाई दे रहा है। वह दर्शक स्वयं भी इनका एक अंग बन जाना चाहता है। वह नदी के जल की बूंद-बूंद में, इस महापर्व के भागीदार, ‘आदमी’ की उपस्थिति की परख करना चाहता है। उसे लगता है कि नदी किनारे को छूती यह जलधारा नहीं है। अपितु देश की मूल-चेतना ही बहती जा रही है जिसमें डुबकी लेते ही उसकी नस-नस में भारतीयता जाग उठती है। उसे उन जनसमूहों में पूरा भारत नजर आने लगता है।

विशेष-
(1) भाषा में साधारण बोलचाल की शब्दावली है।
(2) शैली कौतूहल और रोचकता जगाने वाली है।

3. आयातित सोच, धार्मिक मंचों के गैर धार्मिक आलापों और धर्म स्थलों के सरकारीकरण के बावजूद लोग स्नान को पर्व बना रहे हैं। बिना आमन्त्रण आ रहे हैं। ऊपर-ऊपर ही सही तीर्थ को आज की खिड़की से इतिहास में देख रहे हैं। पूरे आधुनिक होने के बाद कहीं भीतर कुछ अच्छा करने की दबिश में, नदी के पानी में अपने को क्षण-दो-क्षण के लिए ही सही पूरे मन से छोड़ रहे हैं। बस इसे अपार भीड़ के अनुशासित आचरण और नदी के प्रवाह में स्वयं को बूंद बनाकर प्रवाहित करने के भाव ने ही आदमी के भीतर भारतीयता और भारतीयता के भीतर मानव कल्याण को जिंदा रखा है। साबुत रखा है। (पृष्ठ-62)

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी प्रबोधिनी’ के ‘नदी, आस्था और कुम्भ’ नामक पाठ से लिया गया है। तीर्थों के स्वरूप और गतिविधियों के बिलकुल बदल जाने के बाद भी लाखों लोग अनुशासित आचरण के साथ वहाँ बिना बुलाये पहुँच रहे हैं, यह आश्चर्य की ही बात है। लेखक ने इसी ओर ध्यान दिलाया है।

व्याख्या- ‘देश में आधुनिक’ बनाने वाली विदेशी सोच और संस्कृति का आगमन हो चुका है। धर्म के नाम पर बने- सजे मंचों से ऐसे प्रवचन हो रहे हैं जिनका धर्म से कोई निकट सम्बन्ध नहीं लगता। तीर्थों और धर्मस्थलों की व्यवस्था सरकारों ने अपने हाथों में ले ली है। इतने पर भी लोग केवल नदी में डुबकी लगाकर स्नान को ही पर्व बना रहे हैं। बिना बुलाये लाखों की संख्या में आकर आधुनिकता से लैस देशी-विदेशी दर्शकों को चकित बना रहे हैं। ये तीर्थ भ्रमण के लिए आने वाले लोग अपने को पूरी तरह आधुनिक रीति-नीति से पूर्ण मानते हैं और इनकी धर्म-कर्म में कोई विशेष रुचि नहीं है। फिर भी मन में यह दबाव महसूस करते हैं कि तीर्थ में आए हैं, तो कुछ तो अच्छा कर ही लें। इसी कारण ये दो-चार क्षणों को ही सही, नदी की धार में पूरे मन से डुबकी लगा रहे हैं। लेखक कहता है कि अब तीर्थों में तीर्थ जैसी बात नहीं रही, फिर भी लाखों लोग इनमें बिना बुलाये पहुँचते हैं।

और अपनी-अपनी आत्मा के अनुशासन में बँधकर आयोजन में भाग लेते हैं। यह लाखों की अनुशासनबद्ध भीड़ ही भारतीय संस्कृति के इन भौतिक गुणों को जीवित रखे हुए है। यहाँ आने वाला व्यक्ति नदी में स्नान करते हुए वैसा ही अनुभव करता है जैसे वह स्वयं एक बूंद है और वह अपने को जलधारा के प्रवाह को समर्पित कर रहा हो। इस भाव ने ही भारतीयता और लोक कल्याण के भाव को बचाए रखा है।

विशेष-
(1) आयातित सोच, गैर धार्मिक आलाप, धर्म स्थलों का सरकारीकरण, पूरे आधुनिक होना, इतिहास से देखना आदि प्रयोग लेखक के भाषा पर अधिकार का प्रमाण दे रहे हैं।
(2) भाषा सरल है। शैली व्याख्यात्मक और उपदेशात्मक है।

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