RBSE Class 12 Economics Board Paper 2018

RBSE Class 12 Economics Board Paper 2018 are part of RBSE Class 12 Economics Board Model Papers. Here we have given Rajasthan RBSE Class 12 Economics Board Paper 2018.

Board RBSE
Textbook SIERT, Rajasthan
Class Class 12
Subject Economics
Paper Set Board Paper 2018
Category RBSE Model Papers

Rajasthan RBSE Class 12 Economics Board Paper 2018

समय: 3.15 घण्टे
पूर्णांक: 80

परीक्षार्थियों के लिए सामान्य निर्देश

  1. परीक्षार्थी सर्वप्रथम अपने प्रश्नपत्र पर नामांक अनिवार्यतः लिखें।
  2. सभी प्रश्न हल करने अनिवार्य हैं।
  3. प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दी गई उत्तर-पुस्तिका में ही लिखें।
  4. जिन प्रश्नों में खण्ड हैं, उन सभी के उत्तर एक साथ लिखें।
  5. खण्ड प्रश्न संख्या अंक प्रत्येक प्रश्न उत्तर की शब्द सीमा
    1-10 1 10 शब्द
    11-18 2 20 शब्द
    19-27 4 30-40 शब्द
    28-30 6 250-300 शब्द
  6. प्रश्न क्रमांक 28, 29 व 30 में आन्तरिक विकल्प हैं।

खण्ड – अ

प्रश्न 1.
अर्थशास्त्र में व्यष्टि एवं समष्टि शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग किस अर्थशास्त्री ने किया? [1]

प्रश्न 2.
सामाजिक लागते किसे कहते हैं? [1]

प्रश्न 3.
उत्पादन फलन किन दो चरों के मध्य सम्बन्ध दर्शाता [1]

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प्रश्न 4.
क्रेताओं एवं विक्रेताओं की अत्यधिक संख्या किस बाजार में होती है? [1]

प्रश्न 5.
मध्यवर्ती वस्तुओं के कोई दो उदाहरण दीजिए। [1]

प्रश्न 6.
मुद्रा की परिभाषा लिखिए। [1]

प्रश्न 7.
अधिविकर्ष से क्या तात्पर्य है? [1]

प्रश्न 8.
उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति ज्ञात करने का सूत्र लिखिए। [1]

प्रश्न 9.
समग्र मांग किसे कहते हैं? [1]

प्रश्न 10.
खुली अर्थव्यवस्था का अर्थ लिखिए। [1]

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खण्ड – ब

प्रश्न 11.
उपयोगिता से आप क्या समझते हैं? [2]

प्रश्न 12.
प्रतिस्थापन प्रभाव को उदाहरण द्वारा समझाइए। [2]

प्रश्न 13.
स्टॉक एवं प्रवाह में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2]

प्रश्न 14.
राष्ट्रीय आय की दो विशेषताएँ बताइए। [2]

प्रश्न 15.
सकल घरेलू उत्पाद एवं सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अन्तर बताइए। [2]

प्रश्न 16.
मुदा पूर्ति की MI एवं M2 अवधारणाओं को समझाइये। [2]

प्रश्न 17.
बजट के दो उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए। [2]

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प्रश्न 18.
नकदी विहीन लेन-देन के दो लाभ बताइए। [2]

खण्ड – स

प्रश्न 19.
व्यष्टि अर्थशास्त्र एवं समष्टि अर्थशास्त्र में कोई चार अन्तर बताइए।

प्रश्न 20.
तटस्थता वक्र का अर्थ बताइए। इसकी तीन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [4]

प्रश्न 21.
बाजार मांग की अवधारणा को एक मांग तालिका की सहायता से समझाइए। [4]

प्रश्न 22.
औसत उत्पाद एवं सीमान्त उत्पाद की अवधारणाओं को समझाइए। [4]

प्रश्न 23.
सकल निवेश एवं शुद्ध निवेश में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [4]

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प्रश्न 24.
एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता की चार विशेषताएँ समझाइए। [4]

प्रश्न 25.
पूँजी की सीमान्त कार्यकुशलता को रेखाचित्र द्वारा समझाइए। [4]

प्रश्न 26.
यदि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति 0.5 हैतो निवेश गुणक का मान ज्ञात कीजिए। [4]

प्रश्न 27.
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता के कोई चार कारण बताइए। [4]

खण्ड – द

प्रश्न 28.
परिवर्तनशील अनुपातों के नियम की तीन अवस्थाओं को रेखाचित्र की सहायता से समझाइए। [6]
अथवा
कल स्थिर लागत. ‘कल परिवर्ती लागत एवं कल लागत की अवधारणाओं को सारणी की सहायता से समझाइए।

प्रश्न 29.
मांग एवं पूर्ति द्वारा बाजार संतुलन निर्धारण को रेखाचित्र की सहायता से समझाइए। [6]
अथवा
मांग एवं पूर्ति दोनों में एक साथ वृद्धि होने पर साम्य कीमत पर क्या प्रभाव पड़ता है? रेखाचित्र की सहायता से समझाइए।

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प्रश्न 30.
व्यापारिक बैंक को परिभाषित कीजिए। व्यापारिक बैंक के किन्ही चार कार्यों का वर्णन कीजिए। [6]
अथवा
केन्द्रीय बैंक को परिभाषित कीजिए। केन्द्रीय बैंक के किन्हीं चार कार्यों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

उत्तर 1:
रेगनर फ्रिश (Ragner Frish)

उत्तर 2:
सामाजिक लागत से आशय समाज के द्वारा उत्पादन के दौरान वहन किये जाने वाले त्याग व कष्टों से होता है। जैसे| प्रदूषण, शोरगुल, धूल, धुएँ आदि के कारण स्वास्थ्य को हानि।

उत्तर 3:
फलन का आशय दो चरों (स्वतंत्र व आश्रित चर) के बीच पाये जाने वाले मात्रात्मक सम्बन्ध से होता है।

उत्तर 4:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में।

उत्तर 5:
उत्पादक द्वारा धागा एवं रबर का क्रय करना।

उत्तर 6:
हार्टले बिदर्स के अनुसार- मुद्रा वह सामग्री है। जिससे हम वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं।”

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उत्तर 7:
व्यवसायी वर्ग के चालू खाता धारक द्वारा बैंक से अल्प समय के लिए जमा धन से अधिक धन प्राप्त करने को अधिविकर्ष कहते हैं।

उत्तर 8:
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उत्तर 9:
दिए हुए आय एवं रोजगार के स्तर पर एक वर्ष में एक अर्थव्यवस्था में जो वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग की जाती है समग्र मांग कहलाती है।

उत्तर 10:
वह अर्थव्यवस्था जिसमें अन्य देशों से आयात-निर्यात पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता वह खुली अर्थव्यवस्था कहलाती है।

उत्तर 11:
किसी वस्तु या सेवा की किसी आवश्यकता को संतुष्ट करने की शक्ति या क्षमता उपयोगिता कहलाती है।

उत्तर 12:
प्रतिस्थापन प्रभाव से तात्पर्य है कि यदि कोई वस्तु सापेक्षतया सस्ती हो जाती है तो वह महंगी वस्तु के लिए प्रतिस्थापित की जाती है। उदाहरण के लिए जैसे X वस्तु की कीमत Y वस्तु की तुलना से कम हो जाती है। तो सस्ती वस्तु X को महंगी वस्तु Y के स्थान पर प्रतिस्थापित किया जाता है। अर्थात् X वस्तु की मांग बढ़ जाती है।

उत्तर 13:

क्र.सं. स्टॉक प्रवाह
1 स्टॉक एक निश्चित बिन्दु पर आर्थिक दर की माप है प्रवाह समय की एक निश्चित अवधि मेंअधिक दर की माप है।
2 स्टॉक स्थिर आवधारणा है। प्रवाह गत्यात्मक अवधारणा है।
3 स्टॉक की समय अवधि नहीं होती है। प्रवाह में समय अवधि होती है।
4 स्टॉक प्रवाह को प्रभावित करता है। प्रवाह स्टॉक को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से प्रभावित करता है।

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उत्तर 14:
(अ) राष्ट्रीय आय का सम्बन्ध एक देश की अर्थव्यवस्था से होता है।
(ब) राष्ट्रीय आय का सम्बन्ध एक निश्चित अवधि से है, जो सामान्यतः एक वित्तीय वर्ष की होती है, (भारत में एक अप्रैल से अगले वर्ष के 31 मार्च तक)

उत्तर 15:
सकल घरेलू उत्पाद एवं सकल राष्ट्रीय उत्पाद में अंतर-
(अ) एक वर्ष के दौरान एक की देश की घरेलू सीमा में समस्त उत्पादकों द्वारा की गई मूल्य वृद्धियों के योग को सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं। जबकि सकल राष्ट्रीय उत्पादक एक देश के सामान्य निवासियों द्वारा घरेलू सीमा के भीतर और घरेलू सीमा के बाहर की जाने वाली मूल्य वृद्धियों के योग को कहते हैं।
(ब) घरेलू उत्पाद को घरेलू सीमा के सन्दर्भ में परिभाषित किया जाता है। अत: यह एक क्षेत्रीय अवधारणा है।

उत्तर 16:
M1= C + DD +OD (करेन्सी + मांग जमा + अन्य जमाएँ)
M2 = M1 + डाकघर, बचत बैंको में बचत जमाएँ।

उत्तर 17:

  1. देश में आय तथा सम्पत्ति का उचित विवरण प्रस्तुत करना।
  2. देश के आर्थिक विकास में वृद्धि करना।

उत्तर 18:

  1. समय वे धन की बचत
  2. नकद रखने से छुटकारा।

उत्तर 19:

अन्तर का आधार व्यष्टि अर्थशास्त्र समष्टि अर्थशास्त्र
1. क्षेत्र व्यष्टि अर्थशास्त्र व्यक्तिगत इकाइयों; जैसे- व्यक्ति, फर्म, परिवार, उद्योग आदि की समस्याओं अध्ययन करता है। समष्टि अर्थशास्त्र सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर कुल उपभोग, कुल विनिमय, कुल राष्ट्रीय आय आदि का का अध्ययन करता है।
2. मान्यता व्यष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन में यह माना जाता है कि समष्टि चर स्थिर रहते हैं। समष्टि अर्थशास्त्र में अध्ययन हेतु यह माना जाता है कि व्यष्टि चर स्थिर रहते हैं।
3. उद्देश्य इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का सर्वोत्तम बँटवारा होता है।

इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का पूर्ण उपयोग वे विकास करना होता है।

4. मुख्य समस्या इसकी मुख्य समस्या कीमत निर्धारण है। इसकी मुख्य समस्या आय व रोजगार का निर्धारण है।

उत्तर 20:
दो वस्तुओं के उन विभिन्न संयोगों को दर्शाने वाला वक्र जो उपभोक्ता को समान संतुष्टि प्रदान करे, तटस्थता वक्र कहलाता है।
विशेषताएँ-

  1. इसका ढाल ऋणात्मक होता है।
  2. यह मूल बिन्दु के प्रति उन्नतोदर होते हैं।
  3. प्रत्येक ऊँचा अधिमान वक्र अधिक संतुष्टि व्यक्त करता है।
  4. दो अधिमान वक्र एक-दूसरे को नहीं काट सकते।

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उत्तर 21:
बाजार मांग तालिका एक समय विशेष पर विभिन्न कीमतों पर सभी उपभोक्ताओं द्वारा मांगी जाने वाली वस्तुओं की मात्रा के योग का तालिका के रूप में प्रस्तुतीकरण है। बाजार मांग तालिका का उदाहरण है

प्रति किग्रा कीमत  ₹  में A द्वारा मांगी जाने वाली मात्रा (कि, ग्राम में) B द्वारा मांगी जाने
वाली मात्रा (कि. ग्राम में)
C द्वारा मांगी जाने
वाली मात्रा (कि, ग्राम में)
बाजार मांग (A+B+C) (कि. ग्राम में)
10 100 200 75 275
15 75 150 60 285
20 50 100 45 195
25 25 50 30 105

उत्तर 22:
(क) औसत उत्पाद (A.P.)-कुल उत्पादन से परिवर्तनशील साधन की इकाइयों का भाग देने पर औसत उत्पादन प्राप्त होता है। इसे प्रति इकाई उत्पादन भी कहा जाता है।
(ख) सीमांत उत्पाद (M.P.)-परिवर्तनशील साधन (श्रम) की एक अतिरिक्त इकाई को प्रयोग करने पर कुल उत्पादन में होने वाला परिवर्तन सीमांत उत्पादन कहलाता है। यह एक अतिरिक्त इकाई द्वारा उत्पादित मात्रा है।

उत्तर 23:

  1. सकल निवेश-एक निश्चित अवधि (सामान्यतः एक वर्ष) में उत्पादक पूँजीगत वस्तुओं पर जो व्यय करता है। उसे सकल निवेश कहते है।
  2. शुद्ध निवेश–एक निश्चित अवधि (सामान्यतः एक वर्ष) में होने वाले सकल निवेश में से भौतिक पूँजीगत वस्तुओं की घिसावट की राशि को घटाया जाता है। भौतिक पूँजीगत वस्तुओं की घिसावट अर्थात् मूल्य ह्रास को घटाकर शेष बचा हुआ निवेश ही शुद्ध निवेश कहलाता है।

उत्तर 24:
एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता की विशेषताएँ

  1. विक्रेताओं अथवा फर्मों की अधिक संख्या– एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता के बाजार में विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है।
  2. वस्तुविभेद-अपूर्ण प्रतियोगिता या एकाधिकृत प्रतियोगिता से विभिन्न विक्रेताओं द्वारा उत्पादित वस्तुएँ बिल्कुल एक जैसी नहीं होती हैं, उनमें कुछ अन्तर पाया जाता है।
  3. फर्मों का प्रवेश एवं बहिर्गमन–इस बाजार में फर्मों का प्रवेश व बहिर्गमन स्वतन्त्र होता है।
  4. बाजार का अपूर्ण ज्ञान–इस बाजार में क्रेताओं को पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। इस कारण विक्रेता अपनी वस्तु का अलग-अलग मूल्य लेने में सफल हो जाते हैं।

उत्तर 25:
पूँजी की एक अतिरिक्त इकाई के निवेश से जो लाभ प्राप्त होता है उसे पूँजी की सीमान्त क्षमता या कुशलता कहते हैं।
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उत्तर 26:
\(\mathrm{K}= \frac{1}{1-\mathrm{MPC}},=\frac{1}{1-0.5}=2\)

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उत्तर 27:
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता को हम निम्न बिन्दुओं से समझ सकते हैं।

  1. सभी देश सभी प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन समान . रूप से करने में सक्षम नहीं होते हैं, इसलिए आवश्यकता की वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  2. विश्व में साधनों; जैसे-उर्वर भूमि, खनिज सम्पदा, वन सम्पदा इत्यादि का असमान वितरण होता है। जलवायु भी असमान रहती है। उत्पादन के साधनों के बीच स्थानापन्न पूर्ण नहीं होता है। अत: प्रत्येक देश उस वस्तु के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है, जो साधन वहाँ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इससे उसकी उत्पादन लागत कम होती है। लाभ अर्जित करने के लिए वह वस्तुओं का निर्यात करता है। इसके विपरीत अल्प संसाधनों और उनकी ऊँची कीमतों के कारण ऐसी वस्तुओं को दूसरे देशों से आयात करता है।
  3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से आधुनिक टेक्नोलॉजी प्राप्त होती है जिससे विकासशील और पिछड़े देशों का विकास सम्भव होता
  4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से घरेलू उद्योगों में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अधिक लाभ कमाने के लिए वे अपने उत्पाद की गुणवत्ता और विक्रय मात्रा दोनों में वृद्धि करते हैं।

उत्तर 28:
परिवर्तनशील अनुपातों के नियम की तीन अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
प्रथम अवस्था-इस अवस्था में परिवर्तनशील साधन श्रम की मात्रा में वृद्धि करने के साथ-साथ कुछ उत्पादन, औसत उत्पादन तथा सीमान्त उत्पादन तीनों में निरन्तर वृद्धि होती है। यह उत्पत्ति वृद्धि नियम की अवस्था है। इस अवस्था में श्रम की मात्रा में वृद्धि करने से स्थिर साधनों का ज्यादा अच्छी प्रयोग होने लगता है। इसी कारण प्रति इकाई लागत में कमी आ जाती है।

द्वितीय अवस्था-यह अवस्था श्रम की चौथी इकाई से प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में कुल उत्पादन घटती हुई दर से बढ़ता है। औसत उत्पादन समान रहने के बाद घटना प्रारम्भ हो जाता है तथा सीमान्त उत्पादन में निरन्तर गिरावट प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में साधनों की अनुकूलता समाप्त हो जाती है।

तृतीय अवस्था-यह अवस्था श्रम की सातवीं इकाई से। प्रारम्भ होती है जिसमें साधनों का तालमेल बिगड़ने लगता है। तथा सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है। कुल उत्पादन में भी आठवीं इकाई से गिरावट शुरू हो जाती है।

उत्पादक के लिए द्वितीय अवस्था सर्वश्रेष्ठ है। वह पहली अवस्था तथा तीसरी अवस्था में रहकर अपने लाभ को अधिकतम नहीं कर सकता है। वह द्वितीय अवस्था में ही उपयुक्त बिन्दु अथवा साम्य बिन्दु पर रुकना चाहेगा।

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इन तीनों अवस्थाओं को रेखाचित्र द्वारा और अच्छा स्पष्ट किया जा सकता है
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उपर्युक्त रेखाचित्र से स्पष्ट है कि O से L बिन्दु तक औसत उत्पादन में वृद्धि होती है। यह उत्पादन की प्रथम अवस्था है। L से N तक द्वितीय अवस्था है तथा N से आगे तृतीय अवस्था है।

कोई भी उत्पादक तृतीय अवस्था में रहना पसन्द नहीं करेगा क्योंकि इस अवस्था में उत्पादन बढ़ने के स्थान पर घटने लगता है। वह द्वितीय अवस्था में ही रहना पसन्द करेगा।

अथवा
कल स्थिर लागत (TFC)-उत्पादन प्रक्रिया में स्थिर साधनों पर जो व्यय किया जाता है उसे कुल स्थिर लागत कहा जाता है। कुल स्थिर लागत का सम्बन्ध उत्पादन की मात्रा के साथ नहीं होता है। उत्पादन के सभी स्तरों पर यह लागत समान रहती है। इसका सम्बन्ध फर्म के संयत्र के आकार से होता है जैसे भवन पर किया गया व्यय, मशीनों पर किया गया व्यय, बीमा आदि। दूसरे शब्दों में कुल लागत व कुल परिवर्तनशील लागतों का अन्तर ही कुल स्थिर लागत कहलाती है। इसे ज्ञात करने के लिये निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है।
TFC = AFC × Q
TFC = TC – TVC
इसे निम्न सारणी व रेखाचित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता
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कुल परिवर्तनशील लागते (TVC)-ऐसी लागते जो उत्पादन मात्रा के साथ परिवर्तित होती रहती हैं अर्थात् कुल उत्पादन में वृद्धि व उत्पादन में कमी होने पर लागतों में कमी एवं उत्पादन शून्य होने पर लागतें भी शून्य हो जाती हैं। इन्हें प्रमुख या प्रत्यय लागतें भी कहा जाता है। जैसे श्रमिकों की मजदूरी, कच्चा माल, बिजली पर किया गया व्यय । अन्य शब्दों में कुल लागत व कुल स्थिर लागतों का अन्तर ही कुल परिवर्तनशील लागत है। इसे ज्ञात करने के लिये निम्न सूत्र का प्रयोग किया जा सकता है
TVC = TC – TFC
TVC = AVC × Q
इसे निम्न अनुसूची व रेखाचित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है
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कुल परिवर्तनशील लागते प्रारम्भ में उत्पत्ति वृद्धि नियम की क्रियाशीलता के कारण घटती दर से बढ़ती हैं, तत्पश्चात् उत्पत्ति समता नियम की क्रियाशीलता के कारण समान दर से तथा अन्त में उत्पत्ति ह्रास नियम की क्रियाशीलता के कारण बढ़ती दर से बढ़ती हैं।

कुल लागत (TC)-अल्पकाल में किसी वस्तु के उत्पादन पर जो कुल व्यय किया जाता है उसे अल्पकालीन कुल लागतें कहा जाता है। कुल लागते कुल स्थिर लागत व कुल परिवर्तनशील लागतों का योग होती हैं। इसे ज्ञात करने के लिये निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है
TC = TFC + TVC
TC = AC × Q
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अल्पकाल में कुल लागतों में परिवर्तन केवल कुल परिवर्तनशील लागतों में होने वाले परिवर्तनों के कारण ही होता है क्योंकि कुल स्थायी लागते अल्पकाल में अपरिवर्तित रहती है।

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उत्तर 29:
माँग व पूर्ति का सन्तुलन माँग पक्ष से पता चलता है कि वस्तु की सीमान्त उपयोगिता उसके मूल्य की उच्चतम सीमा होती है जबकि पूर्ति पक्ष से पता चलता है कि सीमान्त लागत उसके मूल्य की निम्नतम सीमा होती है। वस्तु का वास्तविक मूल्य इन्हीं दो सीमाओं के बीच उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ पर उस वस्तु की माँग व पूर्ति बराबर हो जाए। क्रेता यह चाहता है कि वह कम-से-कम मूल्य चुकाये जबकि विक्रेता अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है। अतः माँग व पूर्ति के साम्य बिन्दु पर वास्तविक कीमत निर्धारित होती है जहाँ पर क्रेता व विक्रेता दोनों सन्तुष्ट होते हैं। उस साम्य बिन्दु पर निर्धारित कीमत को ही ‘साम्य कीमत’ या सन्तुलन मूल्य कहा जाता है और इस कीमत पर निर्धारित वस्तु की मात्रा को ‘साम्य मात्रा’ या सन्तुलन मात्रा कहा जाता है।
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तालिका की व्याख्या-तालिका से स्पष्ट है कि X वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी माँग कम हो जाती है जबकि वस्तु की पूर्ति में वृद्धि होती है। तालिका में साम्य कीमत के 20 पर वस्तु की माँग व पूर्ति दोनों बराबर 15-15 इकाइयाँ हैं। अतः 20 साम्य कीमत कहलाएगी।
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रेखाचित्र की व्याख्या-उपरोक्त रेखाचित्र में OXअक्ष पर वस्तु की माँग व पूर्ति दर्शायी गयी है जबकि OY अक्ष पर वस्तु की कीमत को दर्शाया गया है। DD वक्र मांग को व्यक्त करता है जबकि SSवक्र वस्तु की पूर्ति का वक्र है। माँग व पूर्ति वक्र दोनों एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं। अत: वस्तु की कीमत OP निर्धारित हो जाती है। वस्तु की निर्धारित OQ मात्रा साम्य कहलाती है। E बिन्दु पर निर्धारित कीमत ही साम्य कीमत है। जब वस्तु की कीमत  ₹ 20 है तो इस कीमत पर माँग व पूर्ति दोनों बराबर-बराबर 15 इकाइयाँ हैं। अत: E साम्य बिन्दु है। जिस पर माँग व पूर्ति बराबर हो जाती है।

अथवा
रेखाचित्र में SS मूल पूर्ति वक्र, DDमूल माँग वक्र है। चित्र में देखने से स्पष्ट हो रहा है कि जब माँग तथा पूर्ति वक्र दोनों दायीं ओर शिफ्ट हो रहे हैं तो उनका नया सन्तुलन बिन्दु E1पर बन रहा है तथा नयी मात्रा बढ़कर q1 हो गयी है। जबकि कीमत P में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। अत: यह कहा जा सकता है कि माँग तथा पूर्ति वक्र दोनों के एक साथ समान अनुपात में दायीं ओर शिफ्ट होने से सन्तुलन कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन सन्तुलन मात्रा में वृद्धि होगी। यदि दोनों में शिफ्ट असमान अनुपात में होता है तो कीमत तथा मात्रा दोनों में परिवर्तन हो जायेगा।
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उत्तर 30:
भारत में व्यापारिक बैंकों से आशय ऐसे बैंको से है। जो सभी साधारण बैंकिंग कार्य करते हैं तथा जिनका नियमन एवं नियन्त्रण भारतीय बैंकिग नियमन अधिनियम, 1949 के अनुसार होता है।

आधुनिक बैंकिग का विकास यूरोप में हुआ था। इसके बाद यह सम्पूर्ण विश्व में फैल गए। बैंक की परिभाषाएँ (Definition of Bank)-बैंक शब्द की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं जिनमें से प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

अधिनियमों के अनुसार-

  1. ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार, “बैंक वह संस्था है जो अपने ग्राहकों से प्राप्त धन की रक्षा करती है। इसका प्रमुख कार्य अपने ड्राफ्टों का भुगतान करना है। इसका लाभ ग्राहकों द्वारा इसके पास रखे धन से प्राप्त होता है।”
  2. भारतीय बैंकिंग नियम व अधिनियम, 1949 के अनुसार, “बैंकिंग कम्पनी वह है जो बैंकिंग का व्यवसाय करे। बैंकिंग का आशय जनता को उधार देने व विनियोग करने के लिए जमा स्वीकार करने से है जो माँगने अथवा अन्य प्रकार से लौटाया जाये तथा जिसकी निकासी चेक, ड्राफ्ट, आदेश आदि द्वारा हो सके।”

अर्थशास्त्रियों द्वारा दी गई प्रमुख परिभाषाएँ-

  1. हार्ट (Hart) के अनुसार, ”बैंक वह है जो अपने साधारण व्यवसाय के अन्तर्गत उने व्यक्तियों द्वारा लिखे गये चेकों का भुगतान करता है जिनसे या जिनके लिए वह चालू खातों में धन प्राप्त करता है।”
  2. किनले (Kinley) के अनुसार, “बैंक एक ऐसी संस्था है जो ऋण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसे व्यक्ति को रुपया उधार देती है जिसे उसकी आवश्यकता है तथा जब लोगों को धन की आवश्यकता नहीं होती है तो वे अपना धन उसके पास जमा कर देते हैं।”
    उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर बैंक की एक सरल एवं संक्षिप्त परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है बैंक एक ऐसी वित्तीय संस्था है जो मुद्रा एवं साख का व्यवसाय करती है।

व्यापारिक बैंक के कार्य (Functions of commercial Bank)

जमाएँ स्वीकार करना (Accepting Deposits)-व्यापारिक बैंकों का प्रमुख कार्य अपने ग्राहकों की जमाएँ स्वीकार करना है। बैंक जनता से जमाएँ स्वीकार करके पर्याप्त वित्तीय संसाधन जुटाते हैं। इन जमाओं पर बैंक ग्राहकों को ब्याज भी देते हैं। बैंकों द्वारा जनता की जमाओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार के खातों को खोलने की सुविधा दी जाती है। बैंकों में खोले जाने वाले प्रमुख खाते निम्नलिखित हैं—

  1. बचत खाता (Saving Account)
  2. सावधि जमा खाता (Fixed Deposit Accounts)
  3. चालू खाता (Current Account)
  4. आवर्ती जमा खाता (Recurring Deposit Account)
  5. प्रधानमंत्री जन-धन खाता (Prime Minister Public Money Account)

ऋण प्रदान करना (Granting Loans)-व्यापारिक बैंको का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य ग्राहकों द्वारा मांगने पर ऋण प्रदान करना है। बैंक व्यापारियों एवं उद्योगपतियों को तो ऋण देते ही हैं, साथ ही सामान्य ग्राहकों को भी घर बनाने, वाहन खरीदने, बच्चों की शिक्षा एवं विवाह आदि के लिए ऋण प्रदान करते हैं। व्यापारिक बैंक अपनी जमाराशियों का एक निश्चित प्रतिशत तरल कोष रखकर शेष राशि को ऋण के रूप में ग्राहकों को दे देते हैं। जमाओं की तुलना में ऋण पर ब्याज ज्यादा लिया जाता है। बैंकों द्वारा ऋण निम्न रूपों में दिये जाते हैं

  1. ऋण अथवा अग्रिम (Loan or Advance)
  2. नकद साख (Cash Credit)
  3. अधिविकर्ष (Overdraft)
  4. विनिमय बिलों की कटौती (Discounting Bills of Exchange)

अभिकर्ता सम्बन्धी कार्य (Agency Related Functions)-बैंक अपने ग्राहकों के लिए प्रतिनिधि (Agent) के रूप में भी कार्य करते हैं। इन कार्यों को करने के लिए ग्राहक द्वारा बैंक को लिखकर देना होता है। इनमें से कुछ कार्य बैंक नि:शुल्क करते है तो कुछ कार्यों के लिए शुल्क लिया जाता है। इस वर्ग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं|

  1. चेक, बिल संग्रह कार्य,
  2. चेक, बिल का भुगतान करना,
  3. ग्राहकों की ओर से भुगतान करना,
  4. ग्राहकों की ओर से भुगतान प्राप्त करना,
  5. अभिगोपन कार्य कराना,
  6. ग्राहकों की ओर से अंश, ऋणपत्र तथा सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करना,
  7. धनराशि हस्तांतरण करना,
  8. वित्तीय सलाहकार के रूप में कार्य करना,
  9. ट्रस्टी के रूप में कार्य करना,
  10. संदर्भ पत्र जारी करना।

सामान्य उपयोगी कार्य (General Utility Functions)-आधुनिक बैंकों द्वारा उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त कुछ सामान्य उपयोगी कार्य भी किए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं|

  1. लॉकर्स की सुविधा,
  2. विदेशी विनिमय की व्यवस्था,
  3. यात्री चेक की सुविधा,
  4. साख का निर्माण करना,
  5. सार्वजनिक ऋण की व्यवस्था करना,
  6. समाशोधन गृह का कार्य करना,
  7. सूचनाएँ एकत्रितं व प्रकाशित करना,
  8. क्रेडिट कार्ड की सुविधा,
  9. इंटरनेट बैंकिंग सुविधा,
  10. मोबाइल बैंकिंग सुविधा,
  11. ATM सुविधा।

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अथवा
केन्द्रीय बैंक प्रत्येक देश का शीर्षस्थ बैंक होता है। यह मुद्रा एवं साख का नियमन करता है। केन्द्रीय बैंक की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न हैं

  1. ए. सी. एल.डे के अनुसार, “केन्द्रीय बैंक वह बैंक है। जो मौद्रिक एवं बैंकिग प्रणाली को नियन्त्रित एवं स्थिर करने में सहायक होता है।”
  2. सैम्युअलसन के अनुसार, “एक केन्द्रीय बैंक बैंकों का बैंक है जिसकी जिम्मेदारी मौद्रिक आधार के नियन्त्रण की होती है और वह उच्च शक्तिशाली मुद्रा नियन्त्रण करता है।”
  3. हॉटे के शब्दों में, “केन्द्रीय बैंक बैंकों का बैंक है क्योंकि यह अन्य बैंकों के लिए अन्तिम ऋणदाता का कार्य करता है।”
  4. शॉ (Shaw) के अनुसार, “केन्द्रीय बैंक देश में साख मुद्रा पर नियन्त्रण रखने वाला बैंक है।”

केन्द्रीय बैंक के कार्य
केन्द्रीय बैंक के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं

  1. मुद्रा का निर्गमन केन्द्रीय बैंक का महत्वपूर्ण कार्य मुद्रा का निर्गमन करना है। यह देश की मौद्रिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर नोट निर्गमन का कार्य करता है। इस कार्य पर इसका एकाधिकार होता है।
  2. बैंकों का बैंक केन्द्रीय बैंक का कार्य बैंकों पर नियन्त्रण रखना भी है ताकि विभिन्न बैंक सरकार की नीतियों के अनुसार ही कार्य करें। यह इन बैंकों के अन्तिम ऋणदाता के रूप में भी कार्य करता है।
  3. सरकार का बैंकर–केन्द्रीय बैंक सरकार के बैंक के रूप में भी कार्य करता है। यह सरकार की ओर से पैसा जमा करता है तथा भुगतान भी करता है। यह सरकार को वित्तीय मामलों में परामर्श देने का कार्य भी करता है। इसके साथ ही यह सरकार के लिए ऋण की व्यवस्था भी करता है।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय कोषों का संरक्षक देश का केन्द्रीय बैंक विदेशी मुद्राओं का भण्डारण भी करता है तथा यह विभिन्न स्रोतों से प्राप्त विदेशी मुद्रा को जमा करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर सरकार की ओर से अदायगी भी करता है। यह विनिमय दर में स्थिरता बनाने का कार्य भी करता है।
  5. केन्द्रीय समाशोधन गृह-यह बैंक व्यापारिक बैंकों के आपसी लेन-देन का खातों में डेबिट-क्रेडिट कराकर बिना नकदी के आदान-प्रदान के निपटान करता है।
  6. साख का नियमन एवं नियन्त्रण केन्द्रीय बैंक देश में साख की मात्रा को नियमित एवं नियन्त्रित करने का कार्य भी करता है। इसके लिए उसके द्वारा मौद्रिक नीति रूपी हथियार का प्रयोग किया जाता है।

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