RBSE Class 12 Political Science Notes Chapter 16 सामाजिक और आर्थिक न्याय एवं महिला आरक्षण

Rajasthan Board RBSE Class 12 Political Science Notes Chapter 16 सामाजिक और आर्थिक न्याय एवं महिला आरक्षण

  • भारतीय संविधान के भाग-4 के अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक न्याय की स्थापना के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण व्यवस्था की गई है।

सामाजिक न्याय का अर्थ:

  • सामाजिक न्याय मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित संकल्पना है जिसका उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करना है।
  • भारतीय समाज का रूढ़िवादी दृष्टिकोण, जातिवाद एवं साम्प्रदायिकतावाद सामाजिक न्याय के मार्ग में बड़ी बाधाएँ रही हैं।
  • महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, कबीर, लोक देवता बाबा रामदेव एवं महात्मा गाँधी जैसे हजारों समाज सुधारक हुए जिन्होंने भारतीय समाज से भेदभाव को समाप्त करके सामाजिक न्याय की स्थापना करने के भरसक प्रयास किए।
  • जिन राज्यों में सामाजिक न्याय का अभाव रहता है वहाँ युद्ध, क्रान्ति एवं विद्रोह की आशंका बनी रहती है।
  • भारतीय समाज में पहले वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी जो बाद में जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। परिणामस्वरूप असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद व सामाजिक ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न हो गई। इसी का लाभ विदेशी आक्रमणकारियों ने उठाया।
  • अन्तत: सभी भेदभावों को भूलकर भारतीयों ने एकता, अखण्डता व भाईचारे की भावना को अपनाकर 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की।

भारतीय संविधान और सामाजिक न्याय:

  • स्वतन्त्रता के पश्चात डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय लोककल्याणकारी प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना। इस हेतु संविधान में अनेक प्रावधान किये गये।
  • समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने के साथ-साथ अनुसूचित जातियों व जनजातियों की रक्षा हेतु उन्हें सरकारी नौकरियों व विधायिका में आरक्षण प्रदान किया गया।
  • संविधान के भाग चार के अनुच्छेद 38 में वर्णित है-“राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे, भरसक कार्यसाधन के रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की उन्नति का प्रयास करेगा।”

सामाजिक न्याय की प्रकृति:

  • भारतीय संविधान के भाग 3 (मौलिक अधिकार) एवं भाग 4 (नीति निर्देशक तत्व) में सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के विविध उपायों की व्याख्या की गई है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग अथवा जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव व विभेद का निषेध किया गया है।
  • 86 वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा भारत के संविधान में अन्तः स्थापित अनुच्छेद 21 (क) सामाजिक न्याय को स्थापित करने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है। इसके अनुसार राज्य 6 से 14 वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों के लिए मौलिक अधिकार के रूप में निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेगा। यह अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से लागू हो गया।

सामाजिक न्याय की व्यावहारिक स्थिति:

  • संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद सामाजिक न्याय का लाभ व्यवहार में सभी को नहीं मिल सका है। आरक्षण की व्यवस्था का राजनीतिकरण व चुनावीकरण कर दिया गया।
  • भारत की दलीय राजनीति ने वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देकर सामाजिक न्याय को विक्षिप्त कर दिया है। सामाजिक ध्रुवीकरण, जातिवाद व वोट बैंक की राजनीति सामाजिक न्याय के मौलिक सिद्धान्तों के पूर्णतया विपरीत है।
  • सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए वंचित वर्ग का सामाजिक उत्थान व मानसिक विकास आवश्यक है।

आर्थिक न्याय:

  • किसी भी समाज में आर्थिक न्याय व आर्थिक समानता की स्थापना करना पूर्णतया सम्भव नहीं है। अतः आर्थिक न्याय का मूल लक्ष्य आर्थिक असमानता को कम करना है।
  • मार्क्स ने इतिहास की व्याख्या आर्थिक भौतिकवाद के आधार पर करते हुए लिखा है कि समाज में सदैव से दो वर्ग रहे हैं-शोषक व शोषित । इनमें से बिना एक वर्ग की समाप्ति के समाज में आर्थिक न्याय की स्थापना नहीं की। जा सकती है।
  • भारत के विभिन्न राज्यों में आर्थिक विषमता के कारण ही नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, तस्करी एवं आतंकवाद जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ विकसित हो गई हैं। यह देश की एकता व अखण्डता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा हैं।

आर्थिक न्याय का अर्थ:

  • आर्थिक न्याय का अर्थ है- आर्थिक क्षेत्र में न्याय प्रदान करना।
  • प्रत्येक समाज व राज्य में आर्थिक संसाधनों व धन संपदा का न्यायपूर्ण वितरण ही आर्थिक न्याय है जिससे समाज का प्रत्येक व्यक्ति गरिमामय जीवन व्यतीत कर सके।
  • पं. जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही कहा है कि भूख से मर रहे व्यक्ति के लिए लोकतंत्र का कोई अर्थ व महत्व नहीं है।

भारतीय संविधान और आर्थिक न्याय:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 19(1) तथा अनुच्छेद 39 में आर्थिक न्याय की स्थापना से सम्बन्धित प्रावधान हैं। भारत के संविधान का भाग 4 भी न्याय से अनुप्राणित एक नई सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित करता है।
  • आर्थिक व्यय की प्राप्ति हेतु ही भारत में जमींदारी प्रथा व देशी राजाओं के प्रिवीयर्स को समाप्त कर दिया गया था।

भारत में आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ:

  • विभिन्न प्रयासों के बावजूद भारत में आर्थिक विषमता की खाई निरन्तर गहरी होती जा रही है। इसे कम करने के लिए प्रभावशाली व्यवस्थाएँ की जानी चाहिए जैसे कि असीमित सम्पत्ति पर प्रतिबन्ध, सभी को रोजगार, धन का उचित वितरण, निर्धनों के कल्याणार्थ योजनाएँ, प्रभावशाली कर प्रणाली, आर्थिक आधार पर आरक्षण आदि।।

आर्थिक न्याय की वस्तुस्थिति:

  • भारत विश्व का सबसे अधिक विकास दर वाला देश बन गया है।
  • भारत की विकास दर वित्तीय वर्ष 2015-16 में 7.6 प्रतिशत थी जो चीन की 6.7 प्रतिशत विकास दर से आगे है। भारत आगामी वर्षों में 8.9 प्रतिशत विकास दर प्राप्त कर सकता है।
  • भारत की बढ़ती विकास दर के बावजूद आर्थिक विषमता अभी भी विद्यमान है। विकास का अधिकांश लाभ शहरों को ही पहुँचा है।
  • इन्टरनेट व प्रौद्योगिकी का अभी तक गाँवों में अपेक्षित स्तर तक प्रसार नहीं हुआ है जो डिजिटल डिवाइड के रूप में गाँव व शहर के बीच में भेद करने वाली परिघटना के रूप में जानी जाने लगी है।
  • मेक इन इण्डिया’ परियोजना, विदेशी निवेश की सम्भावना, रोजगार सुविधाओं का विस्तार एवं भ्रष्टाचार नियन्त्रण के परिणामस्वरूप आर्थिक न्याय के क्षेत्र में सुधार की सम्भावनाएँ हैं। स्टार्ट-अप-इंडिया के कारण ई-कॉमर्स के क्षेत्र में पर्याप्त सुधार होगा।

महिला आरक्षण:

  • भारत में महिला शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति के बावजूद उन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में पुरुषों के समान अधिकार नहीं मिल पाये हैं।
  • महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के लिये वर्तमान में कई राज्यों में सरकारी नौकरियों में उनके लिए पद आरक्षित किये गये हैं।

पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण:

  • भारतीय संविधान के 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं में 1/3 पद सभी श्रेणियों में महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिये गए हैं। परिणामस्वरूप उनका सामाजिक व राजनीतिक सशक्तिकरण हुआ है तथा पंचायती राज संस्थाओं में उनकी भागीदारी 42.3 प्रतिशत से अधिक हो चुकी है।

लोकसभा व राज्यसभा एवं विधानसभा में आरक्षण की माँग:

  • लोकसभा व राज्यसभा में आरक्षण द्वारा महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक कदम है।
  • चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलन, बीजिंग के घोषणा पत्र के अनुच्छेद 181 में कहा गया है कि-“लोकतन्त्र के सुचारु क्रियान्वयन व विकास के लिए आवश्यक है कि निर्बाध निर्माण की प्रक्रिया में पुरुष व महिला दोनों की समतुल्य भागीदारी सुनिश्चित हो ताकि समाज की संरचना के संतुलन को बनाए रखा जा सके।

महिला आरक्षण विधेयक का संक्षिप्त इतिहास:

  • संसद व विधानसभाओं में महिला आरक्षण से सम्बन्धित विधेयक कई बार पारित करने के लिए प्रस्तुत किया जा चुका है किन्तु राजनीतिक दलों की स्वार्थपरता व हठधर्मिता के कारण यह अभी तक पारित नहीं हो सका है।

महत्वपूर्ण तिथियाँ एवं सम्बन्धित घटनाएँ:

संन् 1996 —  प्रधानमंत्री एच. डी. देवगोड़ा की सरकार द्वारा 81वें संवैधानिक संशोधन के रूप में महिला आरक्षण विधेयक का प्रस्तुतीकरण।।
सन् 1998 — प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (NDA) द्वारा 84वें संवैधानिक विधेयक के रूप में महिला आरक्षण विधेयक का पुनः प्रस्तुतीकरण।
सन् 1999 — राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (NDA) द्वारा विधेयक का पुनः प्रस्तुतीकरण।
सन् 2002 — 86वें संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया जिसके अनुसार 6 से 14 वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों के मौलिक अधिकार के रूप में उनके लिए निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई।
सन् 2008 — संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (NDA) सरकार ने 108वें संवैधानिक संशोधन के रूप में महिला आरक्षण विधेयक को पुनः राज्य सभा में प्रस्तुत किया गया।
सन् 2009 — राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने दोनों सदनों-लोकसभा व राज्यसभा के समक्ष घोषणा की कि सरकार 4 जून को विधानसभाओं एवं संसद में महिला आरक्षण विधेयक को शीघ्र पारित करायेगी।
सन् 2010 — कैबिनेट ने महिला आरक्षण विधेयक प्रस्ताव को अनुमोदित कर राज्यसभा के पास भेजा। राज्यसभा ने 25 फरवरी 2010 को इसे पारित कर दिया किन्तु लोकसभा में इसे पारित नहीं किया गया।
सन् 2016 — नवम्बर में महिला आरक्षण की माँग संसद में पुनः उठायी गई।

RBSE Class 12 Political Science Notes Chapter 16 प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली

  • सामाजिक न्याय — समाज के सभी सदस्यों की क्षमताओं के समुचित विकास की अवस्था को सामाजिक न्याय कहा जाता है। सामाजिक न्याय की अवधारणा इस बुनियाद पर आधारित है कि व्यक्तियों के मध्य सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए तथा सभी मनुष्यों को समान मानना चाहिए।
  • साम्प्रदायिकता — धर्मों के आधार पर पारस्परिक ईष्र्या, द्वेष व वैमनस्य की भावना साम्प्रदायिकता कहलाती है। यह भावना देश की एकता व अखण्डता के विरुद्ध है।
  • वर्ण व्यवस्था — प्राचीन भारत में समाज चार वर्गों के आधार पर विभक्त था इसे वर्ण व्यवस्था कहा गया। ये वर्ण थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। यह विभाजन जन्म पर आधारित था। इनका उल्लेख धर्मसूत्रों व धर्मशास्त्रों में मिलता है।
  • क्षेत्रवाद — अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अपने क्षेत्र को अधिक महत्व देना। अन्य क्षेत्रों से अलग होने का अहसास देने वाला क्षेत्रवाद भी देश की एकता के लिए एक चुनौती है।
  • अलगाववाद — अलगाववाद से आशय एक राज्य से कुछ क्षेत्र को अलग करके एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की माँग से है अर्थात् सम्पूर्ण इकाई से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने की माँग अलगाववाद है। अलगाववाद का उदय तब होता है जब क्षेत्रवाद की भावना उग्र रूप धारण कर लेती है। उदाहरण स्वरूप भारत में मिजो आन्दोलन व नागालैण्ड का आन्दोलने।
  • मौलिक अधिकार — ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के लिए मौलिक व अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा प्रदान किए जाते हैं तथा जिन अधिकारों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। अन्य देशों के समान ही भारतीय संविधान में भी मौलिक अधिकारों को स्थान देते हुए संरक्षण प्रदान किया गया है।
  • नीति निर्देशक तत्व — भारतीय संविधान के भाग 4 में उल्लिखित नीति निर्देशक तत्वों के माध्यम से राज्य को शासन संबंधी आवश्यक निर्देश दिये गए हैं। यद्यपि राज्य इन्हें लागू करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य नहीं है।
  • बेगार — बिना मजदूरी दिए श्रम कराना बेगार कहलाता है। प्राचीन काल में जमींदारी प्रथा में इसका प्रचलन था। 9. आर्थिक न्याय-इसका अर्थ आर्थिक समानता को समाप्त करना नहीं वरन् कम करना है।
  • प्रिवीपर्स — स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने तत्कालीन राजा-महाराजाओं को भारतीय संघ के साथ स्वेच्छा से मिल जाने या विलय-पत्र सरकार को सौंपने को कहा था तथा उन्हें आश्वासन दिया था कि उन्हें अपने परिवार, स्टाफ व राजमहल के रखरखाव हेतु सरकारी कोष से कुछ धनराशि दी जायेगी। इसी को ‘प्रिवीपर्स’ कहा गया।
  • नौकरशाही — यह कार्मिकों का वह समूह है जिस पर प्रशासन का केन्द्र आधारित है। यह फ्रांसीसी शब्द ‘ब्यूरो से बना है जिसका अर्थ है मेज प्रशासन अर्थात् कार्यालयों द्वारा प्रशासन।।
  • डिजिटल डिवाइड — इन्टरनेट, दूरसंचार व प्रसारण सेवाओं के मामले में पहुँच, कनेक्टिविटी और गुणवत्तामूलक सेवाओं के लिए शहरों व गाँवों के मध्य का अन्तर ‘डिजिटल डिवाइड’ कहलाता है।
  • विमुद्रीकरण — जब किसी देश की सरकार पुरानी मुद्रा को कानूनी तौर पर बन्द करा देती है तो इसे विमुद्रीकरण कहते हैं। ऐसा कालाधन, आतंकवाद, अपराध व तस्करी आदि को रोकने के लिये किया जाता है। नवम्बर 2016 में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने 500 व 1000 के नोटों का विमुद्रीकरण किया।
  • विधायिका — जनता के प्रतिनिधियों की सभा जिसके पास देश का कानून बनाने का अधिकार होता है। कानून बनाने के अतिरिक्त विधायिका को कर लगाने, बजट व आय वित्त विधेयकों को पारित करने का अधिकार होता है। केन्द्रीय विधायिका को संसद व राज्य विधायिका को विधान मंडल कहा जाता है।
  • मेक इन इण्डिया — भारत सरकार द्वारा यह अभियान देशी और विदेशी कम्पनियों के भारत में ही वस्तुओं के निर्माण पर जोर देने के लिये बनाया है। इसका उद्घाटन प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने 25 सितम्बर 2014 को किया था।
  • स्टार्ट अप इण्डिया — यह एक नई कम्पनी होती है जिसको दो या तीन लोग मिलकर शुरू करते हैं। कम्पनी ऐसे प्रोडक्ट लॉन्च करती है जो पहले से मार्केट में नहीं हैं। योजना का मुख्य उद्देश्य उद्यमशीलता को बढ़ावा देना है जिससे देश में रोज़गार के अवसर बढ़े।
  • डॉ. राजेन्द्र प्रसाद — भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी तथा स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना योगदान दिया।
  • डॉ. भीमराव अम्बेडकर — डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ व समाज सुधारक थे। उन्होंने श्रमिकों व महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। ये भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष निर्माता तथा स्वतन्त्र भारत के प्रमुख कानून मंत्री थे।
  • श्रीमती प्रतिभा पाटिल — सन् 2007 में वह भारत के इतिहास में पहली बार महिला राष्ट्रपति बनीं । सन् 2012 तक वह इस पद पर रहीं। वह भारत की 12वीं राष्ट्रपति थीं।
  • नरेन्द्र मोदी जी (जन्म 1950) — भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री हैं। वे स्वतन्त्र भारत के 15वें प्रधानमंत्री हैं तथा इस पद पर आसीन होने वाले स्वतन्त्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं।
  • एच. डी. देवगोडा — भारत के पूर्व प्रधानमंत्री। इनकी सरकार ने 81वें संवैधानिक संशोधन के रूप में महिला आरक्षण विधेयक को संसद में प्रस्तुत किया था।
  • अटल बिहारी वाजपेयी — भारत के पूर्व प्रधानमंत्री। इनकी सरकार ने भी महिला आरक्षण विधेयक को संसद से पारित कराने का प्रयास किया था।
  • डॉ. राधाकृष्णन — डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति थे। ये प्रमुख शिक्षाविद् थे। इन्होंने कहा था कि जो लोग गरीबी की ठोकरें खाकर इधर-उधर भटक रहे हैं, जिन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती और जो भूख से मर रहे हैं, वे संविधान या उसकी विधि पर गर्व नहीं कर सकते।
  • फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट — संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति, इन्होंने कहा था कि आर्थिक सुरक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता के बिना कोई भी व्यक्ति सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता।

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