Rajasthan Board RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 बिहारी
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई। जा तन की झाँईं परें, श्यामु हरित दुति होइ॥. उपर्युक्त दोहे के किस शब्द में श्लेष अलंकार है ?
(क) नागरि सोई
(ख) भव-बाधा
(ग) तन
(घ) हरित-दुति
उत्तर:
(घ) हरित-दुति
प्रश्न 2.
‘पौष मास में दिनमान प्रभावहीन हो जाता है, इस भाव को स्पष्ट करने के लिए किससे उपमा दी है ?
(क) अतिथि से
(ख) जंवाई से।
(ग) छोटे दिन से
(घ) सूर्य की तेजी से
उत्तर:
(ख) जंवाई से।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘त्रिभंगी लाल’ शब्द का प्रयोग किसके लिए हुआ है ?
उत्तर:
‘त्रिभंगी लाल’ शब्द का प्रयोग श्रीकृष्ण के लिए हुआ है क्योंकि वंशी बजाते समय वह तीन अंगों को टेढ़े कर लेते हैं।
प्रश्न 2.
जनता का दुःख किस समय अधिक बढ़ जाता है ?
उत्तर:
जब राज्यव्यवस्था में प्रजा के हित का ध्यान नहीं रखा जाता, तब जनता का दुख अधिक बढ़ जाता है।
प्रश्न 3.
नायिका बादलों के किस व्यवहार से दुखी है?
उत्तर:
नायिका बादलों के, उसे जानबूझकर कष्ट देने से और ‘बदराह’ (कुमार्गी) होने से दुखी है।
प्रश्न. 4.
‘बाज पराएँ पानि परि’ कथन किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर:
इस कथन का प्रयोग कवि ने आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह के लिए किया है जो औरंगजेब के पालतू बाज जैसा आचरण कर रहे थे।
प्रश्न 5.
‘कनक कनक ते सौ गुनी’ में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर:
‘कनक कनक ते सौ गुनी में यमक अलंकार है, क्योंकि यहाँ ‘कनक’ शब्द का दो बार भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
तौ बलियै, भलियै बनी, नागर नंद किसोर। जौ तुम नीकै कै लख्यौ, मो करनी की ओर॥ उपर्युक्त दोहे में निहित कवि के मूलभाव को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
उपर्युक्त दोहे में कवि का मूलभाव यही प्रतीत होता है कि भगवद् कृपा से ही मनुष्य की बिगड़ी बन सकती है। कवि ने भगवान या श्रीकृष्ण से यही निवेदन किया कि यदि वे उनकी करनी पर अधिक ध्यान देंगे तब तो उनका भला होना सम्भव नहीं। हाँ, प्रभु ने यदि कृपापूर्ण दृष्टि से कवि के कर्मों को देखा तो उसका अवश्य उद्धार हो जाएगा।
प्रश्न. 2.
नायक ने नायिका की कमनैती की क्या विलक्षणता बताई है ?
उत्तर:
नायक ने नायिका की कमनैती अर्थात् धनुष से बाण चलाने की विलक्षणता बताते हुए कहा है कि वह बिना डोरी वाले, तिरछी भौंहों के धनुष से मन के चंचल रहते हुए भी, अपनी टेढ़ी (तिरछी) दृष्टि के बाणों से नायक के हृदय को, अचूक निशाना बना रही है। ये सभी बातें विलक्षण हैं, क्योंकि बिना प्रत्यंचा के धनुष से, मन को और दृष्टि को स्थिर किए बिना, अचूक लक्ष्य-भेद नहीं किया जा सकता।
प्रश्न. 3.
कवि ने नीच व्यक्ति के स्वभाव की क्या विशेषता बताई है ?
उत्तर:
कवि ने नीचे व्यक्ति का स्वभाव गेंद के खेल जैसा बताया है। नीचे व्यक्ति तभी ठीक रहते हैं जब उनको कड़े अनुशासन में रखा जाता है। जैसे गेंद को जितना धरती पर जोर से पटका जाता है, वह उतनी ही ऊँची उछलती है। नीच भी दण्डभय से ही सुधर सकता है।
प्रश्न. 4.
‘अनबूडे बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग।’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि बिहारी के अनुसार वाद्यों के मधुर स्वरों में, काव्य से प्राप्त आनन्द में, मन को रस-मग्न कर देने वाले संगीत में तथा प्रेम-प्रसंग में जो नहीं डूबते हैं, उनमें मग्न नहीं होते, उसका जीवन तो डूबा हुआ समझो। उनका जीवन तो व्यर्थ बीत गया। जो इन सभी कलाओं का जी भरकर आनन्द लेते हैं, उन्हीं के जीवन सार्थक हैं।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न. 1.
‘बिहारी अपनी बात कहते किसी से हैं और उसका प्रभाव किसी और पर पड़ता है।’ उदाहारण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
किसी को माध्यम बनाकर किसी अन्य को अपनी बात से प्रभावित करना काव्य-कला की एक विशेषता होती है। इसे अन्योक्ति कहा गया है। बिहारी के कथन की यह शैली प्रिय लगती है। संकलित दोहों और सोरठों में अन्योक्ति के कई उदाहरण आए हैं। जैसेनहिं पावस, ऋतुराज यह, तजि तरवर चित-भूल। ‘ अपतु भएँ बिनु पाइहै, क्यों नव दल, फल, फूल॥
इस दोहे में कवि’तरवर’ (वृक्ष) से कह रहा है-हे तरवर ! अपने चित्त से यह बात निकाले दो कि बिना कुछ त्यागे ही तुम सब कुछ पा लोगे। यह वर्षा ऋतु का समय नहीं है, यह तो वसंत ऋतु है। इसमें तो ‘अपतु भए’ पत्तों से सहित होने पर ही तुम्हें नए पत्ते, फल और फूल प्राप्त होंगे। यह बात कवि ने वृक्ष को संबोधित करके कही है किन्तु इसके लक्ष्य वे लोग हैं जो बिना कुछ त्याग किए जीवन में सारी सुख-सुविधाएँ पा लेना चाहते हैं। कवि ऐसे ही लोगों को अपनी बात से प्रभावित करना चाहता है। कवि का संदेश है, नया पाना है तो पुराने का प्रसन्न मन से त्याग कर दो।
इसी प्रकार कवि ने तंत्री-नाद, कवित्त-रस ………….. सब अंग ॥ दोहे में सांसारिक सुखों से दूर भागने वाले साधु-संन्यासियों पर व्यंग्य किया है। ऐसे ही लोग जरा-सी चूक होते ही, इन विषयों में पूरी तरह डूब जाया करते हैं। “नहिं पराग ………………….आगे कौन हवाल” में कवि ने भौरे पर रख अपनी बात से राजा जयसिंह को प्रभावित किया था। ‘स्वारथ सुकृत …………….. तू पच्छीनु न मारि ॥’ दोहे में भी कवि ने बाज को सुनाकर राजा जयसिंह को प्रभावित करना चाहा है।
प्रश्न. 2.
बिहारी के दोहों में भावों की सघनता है,’ सप्रमाण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि बिहारी के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने ‘दोहे रूपी गागर में भावों का सागर’ भरना चाहा है। इसे सामासिक रचना शैली भी कहा जा सकता है।
थोड़े में बहुत कुछ कह देने की विशेषता के कारण बिहारी लाल के दोहों में, भावों की सघनता अर्थात् विविध भावों की उपस्थिति दिखाई देती है। बिहारी मुख्यत: एक श्रृंगारी कवि हैं। उनकी काव्य रचनाओं में नायक-नायिकाओं के प्रेम प्रसंग, मान, वियोगावस्था तथा रूप-सौन्दर्य के वर्णन आदि अधिकता से मिलते हैं। इन सबसे जुड़े भाव, अनुभाव और संचारी भाव अर्थात् नायक-नायिकाओं के प्रेम-प्रदर्शन से संबंधित चेष्टाओं का जैसा सजीव और स्वाभाविक वर्णन बिहारी ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
अली कली ही सौं बिंध्यौ में नवोढ़ा पत्नी के प्रेमपाश में बंधे राजा जयसिंह का भाव चित्र प्रस्तुत हुआ है। इसी प्रकारे ‘लाज-लगाम’ के वश में न रहने वाले, उद्दण्ड घोड़ों जैसे अपने नेत्रों से हार मानने वाली नायिका की चेष्टाएँ, अनुभाव-सौन्दर्य का दुर्लभ नमूना है। ‘कौन सुनै, कासौं कहाँ, सुरति विसारी नाह’ विरहिणी का यह कथन उसकी दुख भरी दासता को व्यक्त कर रहा है। उसके मनोभावों को कवि ने उसकी वाणी में साकार कर दिया है। ‘तिय कित कमनैती पढ़ी, बिनु जिहि भौंह कमान। चलचित-बेझैं चुकति नहिं, बंकबिलोकनि-बान॥’ इस दोहे में तो नायिका की चेष्टाएँ अनुभावों के बाण पर बाण चलाए जा रही है। अनुभावों के साथ-साथ लज्जा, मद, हर्ष आदि संचारी भाव भी व्यक्त हुए हैं। इस प्रकार बिहारी वियोग एवं संयोग श्रृंगार के भावों की सृष्टि करने में सिद्ध हस्त हैं।
प्रश्न 3.
बिहारी की वाक्पटुता सराहनीय है, उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘वाक्पटुता’ अर्थात् बात को चित्ताकर्षक बनाकर प्रस्तुत करना, एक सफल कवि की पहली विशेषता होती है। कवि बिहारी तो इस काव्य के मर्मज्ञ हैं। उनके दोहे पग-पग पर उनकी वाक्पटुता का प्रमाण देते हैं। वाक्पटुता ही चमत्कार की जननी है। तनिक इस दोहे को देखिए
‘करी कुवत जगु कुटिलता तजौं न दीनदयाल।
दुखी हो हुगे सरल हिय, बसत भंगी लाल’॥
बिहारी तो दीनदयालु को भी अपनी वाक्पटुता का निशाना बना रहे हैं। बड़ी चतुराई से कवि ने अपनी कुटिलाई को भगवान की कृपा पाने का आधार बना दिया है। कुटिलता का अर्थ टेढ़ा भी होता है। जब देवता स्वयं तीन अंगों से टेढ़ा है तो भक्त का हृदय भी टेढ़ा ही होना चाहिए ताकि प्रभु आराम से उसमें फिट हो जाएँ। सीधी जगह में टेढ़ी वस्तु नहीं आ सकती। अन्योक्ति के प्रयोग के लिए भी वाक्पटुता आवश्यक है।
नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली, कली ही सौं बिंध्यौ, आमैं कौन हवाल॥
इस एक दोहे ने आमेर के राजा जयसिंह में ऐसा परिवर्तन ला दिया जो बड़े-बड़े उपदेशों से भी आना सम्भव नहीं था। अपनी वाक्पटुता से बिहारी ने, राजकार्य को भूलकर नई रानी के प्रेम में डूबे, राजा को उसके प्रजापालन के कर्त्तव्य का ध्यान दिला दिया। यदि बिहारी इसी बात को सीधे-सीधे राजा से कहते तो राजा रुष्ट भी हो सकता था। अत: वाक्पटुता में बिहारी की जोड़ का कोई हिन्दी कवि कठिनाई से ही मिलेगा।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर बिहारी के काव्य की विशेषताएँ बताइए
(क) अलंकार योजना
(ख) प्रकृति वर्णन
(ग) उक्ति वैचित्र्य
(घ) भाषा
उत्तर:
(क) अलंकार योजना
बिहारी को यदि अलंकारों से क्रीड़ा करने वाले कवि कहा जाय तो गलत नहीं होगा। वह मानते हैं कि कविता और वनिता (स्त्री) बिना आभूषणों, अलंकारों के शोभा नहीं देतीं। हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित दोहों का श्रीगणेश ही चमत्कारपूर्ण अलंकार-योजना से हुआ है।
जा तन की झाँईं परै, स्यामु हरित-दुति होइ॥
इस पंक्ति में ‘स्याम हरित-दुति होइ अंश में कवि बिहारी ने श्लेष का अद्भुत चमत्कार प्रस्तुत किया है। ‘स्याम’ के अर्थ श्रीकृष्ण, नीला वर्ण तथा पाप है। इसी प्रकार ‘हरित दुति’ का अर्थ हरी कान्ति, प्रसन्न, कान्तिहीन आदि हैं। कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाइ। ‘तरि संसार, पयोधि कौं, हरि नावें करि नाउ॥ रूपक, सुनत पथिक………….. …जियति बिचारी बाम ॥ में अतिशयोक्ति, ‘रुक्यौ साँकरै……………आवतु जातु ॥ में सांगरूपक, ‘अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सबअंग’ में’ विरोधाभास, कुटिल अलक…………….रुपैया होतु ॥ में दृष्टांत तथा आली, बाढ़तु विरह ज्यौं, पांचाली कौ चीरु में उपमा अलंकार है। इस प्रकार बिहारी की अलंकार योजना विविधता तथा भव्यता से सजी-धजी है।
(ख) प्रकृति वर्णन – बिहारी लाल ने प्रकृति के मनोहारी लघु चित्र भी प्रस्तुत किए हैं और प्रकृति को रस के उद्दीपक के रूप में भी वर्णित किया है।
‘नहिं पावस, ऋतुराज यह तजि तरवर चित-भूल।
अपतु भएँ बिनु पाई है क्यौं नव दल, फल, फूल ॥
इस दोहे में प्रकृति को अन्योक्ति का आधार बनाया गया है। इसी प्रकार ‘रुक्यौं साँकरे………..आवतु जातु’ में प्रकृति का आलंकारिक वर्णन है। अब तजि…………..कुसुम की वास॥ दोहे में प्रकृति वियोग-श्रृंगार के उद्दीपन के रूप में आई है।
‘बदाबदी………….बदाह ॥ पंक्ति में बादल विरहिणी की व्यथा बढ़ा रहे हैं।
(ग) क्ति वैचित्र्य – कथन में नाटकीयता या बात को कुछ नए ढंग से प्रस्तुत करना, उक्ति वैचित्र्य कहा जाता है। संकलित दोहों में यह विशेषता विद्यमान है।’कुटिलता तजों न दीनदयाल’ में कवि ने भगवान की कृपा पाने की इच्छा विचित्र ढंग से प्रकट की है। इसी प्रकार ‘खेलु न रहिबौ खेम सो, केम-कुसुम की बास’ में कवि ने वर्षा ऋतु में विरह व्यथा के बढ़ जाने की बात को सीधे न कहकर व्यंजना शक्ति के माध्यम से कहा है। ‘अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग’ की उक्ति वैचित्र्य का सुन्दर उदाहरण है।
(घ) भाषा – बिहारी के काव्य की भाषा ब्रजभाषा है। भाषा पर बिहारी का असाधारण अधिकार है। थोड़े में बहुत कह देने की कला उनकी भाषा की अद्वितीय विशेषता है। इसी कला के कारण उनको ‘गागर में सागर’ भर देने वाला कहा गया है। रीतिकाल में बिहारी की ब्रजभाषा को उनके समालोचकों ने ‘मानक ब्रजभाषी माना है। बिहारी ने व्यंजना शब्द-शक्ति का पूर्ण उपयोग किया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं ‘करौ कुबेतु जगु, कुटिलता तजौ न दीनदयाल। दुखी हो हुगे सरल हिय, बसत त्रिभंगी लाल।’ दोहे में कवि ने अपनी भाषागत चतुराई के बल पर ‘कुटिलता’ के दुर्गुण को सद्गुण सिद्ध कर दिया है। सटीक शब्द-चयन को एक नमूना प्रस्तुत है‘रुक्यौ साँकझैं कुंज-मग, करतु झाँझि झकुरातु। मंद-मंद मारुत-तुरँगु, बूंदतु आवतु जातु ॥’
प्रश्न 5.
निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
(क) कौड़ा आँसू …………….. डारे रहत,
(ख) जोग-जुगति ………………. सेवत नैक
(ग) अब तजि नाए ………….. कुसुम की वास
(घ) नीच हियै ……………. ऊँचे होते।
नोट – उपर्युक्त काव्यांशों की व्याख्या के लिए ‘सप्रसंग व्याख्याएँ’ प्रकरण का अवलोकन करके स्वयं व्याख्या करें।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 वस्तुनिष्ठ प्रश्न
प्रश्न 1.
‘कुटिलता तजौं न दीनदयालु’ कवि के ऐसा कहने का कारण है –
(क) कवि का कुसंग में फँसा होना
(ख) कवि का दीनदयाल को चुनौती देना
(ग) भगवान के निवास में सुविधा का ध्यान रखना।
(घ) कवि का अहंकारी होना
उत्तर:
(ग) भगवान के निवास में सुविधा का ध्यान रखना।
प्रश्न 2.
कवि बिहारी के अनुसार संसार सागर के पार जाने का उपाय है –
(क) तैर कर सागर को पार करना
(ख) माला जपना
(ग) हरि के नाम को नौका बनाना
(घ) तप करना
उत्तर:
(ग) हरि के नाम को नौका बनाना
प्रश्न 3.
‘बाज पराएँ पानि परि’ में अलंकार है –
(क) यमक
(ख) अन्योक्ति
(ग) रूपक
(घ) अनुप्रास
उत्तर:
(घ) अनुप्रास
प्रश्न 4.
आड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेहबस, सखी सबै ढिंग जाति॥
इस दोहे में वर्णित रस है –
(क) शान्तरस
(ख) भयानक रस
(ग) संयोग शृंगार
(घ) वियोग श्रृंगार
उत्तर:
(घ) वियोग श्रृंगार
प्रश्न 5.
‘अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस रवि चंद्॥’
इस कथन द्वारा कवि ने किस उक्ति को सिद्ध करना चाहा है।
(क) दो ज्योतियों के मिलने से अंधकार बढ़ता है।
(ख) दो विरोधियों का मिलन संकट कारक होता है।
(ग) दो राजाओं के राज में प्रजा का कष्ट बढ़ जाता है।
(घ) प्रकृति में अनेक चमत्कारिक घटनाएँ घटती रहती हैं।
उत्तर:
(ग) दो राजाओं के राज में प्रजा का कष्ट बढ़ जाता है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 अतिलघु उत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
कवि बिहारी लाल ने राधा से क्या प्रार्थना की है?
उत्तर:
बिहारी ने राधा से अपने सांसारिक कष्टों को दूर करने की प्रार्थाना की है।
प्रश्न 2.
कवि भगवान से स्वयं को किसके द्वारा बाँधने का आग्रह कर रहा है?
उत्तर:
कवि भगवान से आग्रह कर रहा है कि यदि वह उसे बाँधना ही चाहते हैं तो अपने गुणों से बाँध दें।
प्रश्न 3.
‘तरि संसार-पयोधि कौं’ इस पंक्ति में ‘संसार पयोधि’ में कौनसा अंलकार है?
उत्तर:
‘संसार-पयोधि’ में रूपक अलंकार है क्योंकि ‘संसार’ उपमेय पर पयोधि’ उपमान का भेदरहित आरोप हुआ है।
प्रश्न 4.
‘पावस-मास’ आने पर कवि ने किसे खेल जैसा नहीं बताया है?
उत्तर:
कवि ने पावस मास अर्थात वर्षा ऋतु में कदम्ब के पुष्पों की उत्तेजक सुगन्ध के बीच सहज बने रहने को खेल जैसा नहीं कहा है।
प्रश्न 5.
पूस (पौष) के दिन का मान किसकी तरह घट गया है?
उत्तर:
पूस के महीने के दिन का मान (गर्मी और अवधि) घरं जवाँई के मान (सम्मान) की तरह घट गया है।
प्रश्न 6.
ऋतुराज बसंत में वृक्षों परं नए पत्ते, फूल और फल कब आते हैं?
उत्तर:
पतझर में वृक्ष के सारे पत्तों के झर जाने के बाद ही उस पर नए पत्ते, फल और फूल आया करते हैं।
प्रश्न 7.
कवि बिहारी ने कुंजों में से होकर आ रहे मन्द पवन को किसका रूप प्रदान किया है?
उत्तर:
कवि ने मंद पवन को कुंजों के संकरे मार्ग से निकलते एक रुष्ट घोड़े का रूप प्रदान किया है।
प्रश्न 8.
‘तरे जे बूड़े सब अंग’ बिहारी ने यह किनके लिए कहा है?
उत्तर:
बिहारी ने यह उन लोगों के लिए कहा है जो संगीत, काव्य और प्रेम रस का जीभरकर आनन्द लिया करते हैं।
प्रश्न 9.
कनक में कनक (धतूरा) से सौ गुनी मादकता कैसे है?
उत्तर:
धतूरे को खाने पर ही व्यक्ति मदग्रस्त हुआ करता है किन्तु सोना (धन, सम्पत्ति) मिल जाने भर से ही वह बौरा जाता है।
प्रश्न 10.
‘अली कली ही सौं बिंध्यौ’ में ‘अली’ (भौंरा) का संबोधन किसके लिए है?
उत्तर:
दोहे में कवि ने ‘अली’ शब्द आमेर के राजा जयसिंह के लिए प्रयुक्त किया है।
प्रश्न 11.
बाज पराए पानि परि, हूँ पच्छीनु न मारि॥’ पंक्ति के अनुसार बाज जैसा आचरण कौन कर रहा था?
उत्तर:
बाज जैसा आचरण मिर्जा राजा जयसिंह कर रहे थे जो औरंगजेब के आदेश पर छोटे देशी राजाओं पर अत्याचार कर रहे थे।
प्रश्न 12.
बिहारी की नायिका ने अपने नेत्रों को क्या बताया है?
उत्तर:
नायिका ने अपने नेत्रों को ‘मुँहजोर-तुरंग’ उद्दण्ड घोड़ा बताया है।
प्रश्न 13.
‘कानन सेवत नैन’ इस वचन का क्या आशय है?
उत्तर:
इस कथन के दो आशय हैं प्रथम यह कि नायिका के नेत्र कानों तक पहुँच रहे हैं। विशाल हैं। दूसरा भाव यह है कि नेत्र कामदेव मुनि के आदेश पर ‘कानन’ अर्थात् वन में योगाभ्यास कर रहे हैं।
प्रश्न 14.
‘कौन सुनै, कासौं कहो’ कथन के अनुसार नायिका क्या कहना चाहती है?
उत्तर:
नायिका कहना चाहती है कि उसके प्रिय द्वारा उसे भुला देने पर, बादल भी उसकी वेदना बढ़ाने को आ पहुँचे हैं।
प्रश्न 15.
बिहारी के अनुसार नायिका के मुख की शोभा किस कारण अत्यन्त बढ़ गई है?
उत्तर:
नायिका के मुख पर बालों की तिरछी (टेढ़ी) लटों के लटकने से उसके मुख की शोभा बहुत बढ़ गई है।
प्रश्न 16.
बिहारी की नायिका अपने विरह की अवधि बढ़ते चले जाने की तुलना किससे कर रही है?
उत्तर:
नायिका अपने विरह की बढ़ती जा रही अवधि की तुलना पांचाली के चीर से कर रही है।
प्रश्न 17.
सूर्य और चन्द्र के अमावस के दिन मिल जाने से क्या होता है?
उत्तर:
सूर्य और चन्द्र के मिलने से प्रकाश बढ़ने के स्थान पर और अधिक अंधकार छा जाता है।
प्रश्न 18.
‘तियकित कमनैती पढ़ी,’ नायक नायिका से ऐसा प्रश्न क्यों करता है?
उत्तर:
क्योंकि नायिका बिना प्रत्यंचा वाले भौंहों के धनुष से, मंन को एकाग्र किए बिना ही अपनी तिरछी दृष्टि के बाणों से उसके हृदय के अचूक निशाने से वेध रही है।
प्रश्न 19.
पाठ्य-पुस्तक में संकलित बिहारी के दोहों में से अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन वाला एक दोहा उदधृत कीजिए।
उत्तर:
उधृत दोहा है‘सुनत पथिक-मुँह, माह-निसि, चलति लुवै उहिं गाँम। बिनु बूझै, बिनु ही कहैं, जियति विचारी बाम ॥’
प्रश्न 20.
अपनी पाठ्य-पुस्तक में संकलित बिहारी के दोहे किन-किन विषयों पर आधारित हैं। तीन विषयों के नाम बताइए।
उत्तर:
संकलित दोहे विविध विषयों आधारित हैं। इनमें तीन विषय हैं-शृंगार रस, प्रकृति वर्णन और नीति।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
‘दुखी हो हुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल,’ कवि ने भगवान से ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर:
यह दोहा कविवर बिहारी के उक्ति चातुर्य का एक सुन्दर उदाहरण है। भगवान को हृदय में बसाने के लिए भक्त यही कहता है कि वह अपने सारे दुर्गुण त्याग देगा। हृदय को सरल और पवित्र बनाएगा। किन्तु इसे दोहे में कवि दीनदयालु से कह रहा है कि वह अपनी ‘कुटिलता’ (जो कि एक दुर्गुण है) को नहीं छोड़ेगा। इसका कारण कवि यह बता रहा है कि यदि उसने अपने हृदय को कुटिल (टेढ़ा) से सरल (सीधा) कर लिया तो त्रिभंगी लाल (तीन अंगों से टेढ़े) प्रभु को सीधे हृदय में निवास करने में बड़ी असुविधा होगी। (टेढ़ी वस्तु टेढ़े ही स्थान में सही ढंग से आ पाती है)
प्रश्न 2.
संसाररूपी सागर से पार जाने का कवि बिहारी ने क्या उपाय बताया है? संकलित दोहे के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
सागर के पार जाना है तो एक दृढ़ नौका चाहिए। नौका के सही संचालन और सुरक्षित पार जाने के लिए पतवार का होना भी परम आवश्यक है। कवि कहता है कि यदि तुम्हें संसार-सागर से पार जाना है। उद्धार पाना है तो फिर हरि के नाम को अपनी नाव बनाओ और उसमें मालारूपी पतवार लगाओ। इस प्रकार हरि के नाम की माला घुमाने से निश्चय ही तुम संसार-सागर से पार हो जाओगे।
प्रश्न 3.
पूस के दिन के मान (नापे, अवधि) की तुलना कवि ने किससे की है और क्यों? बिहारी के सम्बंधित दोहे के आधार पर उत्तर लिखिए।
उत्तर:
कवि ने पूस के महीने में दिन का मान घटने (दिन के छोटे हो जाने) की तुलना ससुराल में रहने वाले जवाँई से की है। जब जवाँई ससुराल में ही रहने लगता है तो उसके आने या जाने पर कोई ध्यान नहीं देता। उसके व्यवहार की तेजी (अहंकार) दूर हो जाती है। और वह ठंडा’ पड़ जाता है। इसी प्रकार शीतऋतु के माह पूस में दिन का मान घट जाता है। दिन छोटा होने से उसका आना और जाना पता ही नहीं चलता। इसके साथ ही, उसका तेज (ताप) कम हो जाता है और वह ठंडा हो जाता है।।
प्रश्न 4.
‘सुनत पथिक मुँह, माह निसि, चलति लुर्वै उहिं गाँम। इस पंक्ति में कवि ने माघ के महीने में, पूरे गाँव में लुएँ चलने का वर्णन किया है। इस कथन के निहितार्थ को स्पष् कीजिए।
उत्तर:
कवि बिहारी व्यंजना शब्द-शक्ति के उपयोग में परम निपुण हैं। उपर्युक्त कथन का आशय यह है कि नायक को विदेश बड़ा संतोष मिला, क्योंकि वह मान गया कि उसकी विरह के ताप से तप रही पत्नी जीवित थी। उसी के शरीर के ताप से गाँव में रात में लुएँ चल रही थीं। इस दोहे में व्यंजना शब्द शक्ति के साथ ही कवि ने अतिशयोक्ति अलंकार का भी उपयोग किया है।
प्रश्न 5.
‘नहिं पावसु, ऋतुराज यह, तजि तरवर चित-भूले। अपतु भएँ बिनु पाइहै, क्यों नव दल, फल, फूल।’ इस दोहे में प्रकृति वर्णन का कौन-सा रूप प्रस्तुत हुआ है और दोहे में निहित संदेश क्या है ? लिखिए।
उत्तर:
इस दोहे में प्रकृति का शिक्षाप्रद स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। कवि ने वृक्ष पर रखकर उन लोगों को संबोधित किया है जो बिन कुछ त्याग किए ही जीवन की सारी सुख-सुविधाएँ पा लेना चाहते हैं। कवि का संदेश है कि बसंत ऋतु में वृक्षों पर नए पत्ते, फल और फूल तभी आते हैं जबकि वे एक साल पुराना पत्ते त्याग देते हैं। नवीन के लिए पुराने का त्याग करके, स्थान बनाने पर ही नया रूप-रंग प्राप्त होता है। त्याग से भोग का सुख प्राप्त होता है।
प्रश्न 6.
‘कनक-कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाइ। उहिं खाएँ बौराइ जगु, इहिं पाएँ बौराइ॥ क्या यह दोहा वर्तमान सामाजिक परिवेश पर चुटीला व्यंग्य करता है? अपना मत लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत दोहा कवि ने जिस प्रवृत्ति को सामने रखकर रचा था, वह आज और भी व्यापक रूप में समाज पर छाई हुई है। कनक (धन) की महिमा आज के समाज में कितनी बढ़ गई है यह सर्वविदित है। धन के बढ़ते ही व्यक्ति बौराने लगता है। उसकी चाल-ढाल, जीवन-शैली और स्वभाव सब कुछ बदल जाता है। आज के समाज के नव धनाढ्यों पर कवि का यह व्यंग्य सटीक वार करता है।
प्रश्न 7.
लाज-लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहिं। ए मुँहजोर तुरंग ज्यों, ऍचत हूँ चलि जाहिं॥ इस दोहे के काव्य-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस दोहे में कवि ने नायक-नायिका के प्रेम-प्रसंग का वर्णन किया है। यहाँ संयोग श्रृंगार रस की मधुर योजना हुई है। यहाँ इसका आशय नायिका है। नायक आलम्बन है। नायक का आकर्षित होना उद्दीपन विभाव है। नायिका का कथन ‘मो बस नाहिं’ नेत्रों को नायक की ओर देखने से रोकने की चेष्टा आदि अनुमान हैं। लाज लगाम में ‘रूपक’ तथा ‘मुँह ओर तुरंग ज्यों, खेचत हूँ’ ये उपमा अलंकार हैं। कवि ने प्रेम-व्यापार का सजीव शब्द-चित्र अंकित कर दिया है।
प्रश्न 8.
कवि बिहारी की नायिका ने ‘पांचाली कौ चीर’ किसे बताया है और क्यों? सम्बन्धित दोहे के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नायिका ने अपने निरंतर बढ़ते ही जा रहे विरह को पांचाली का चीर बताया है। जिस प्रकार कौरवों की राजसभा में दुःशासन पांचाली (द्रोपदी) की साड़ी को खींच रहा था और उसका अंत नहीं आ रहा था, इसी प्रकार नायिका के विरह की अवधि विरह रूपी चीर को खींचे जा रही है किन्तु विरह का अंत आता दिखाई नहीं देता।
प्रश्न 9.
‘दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़े दुख-दंदु। इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस पंक्ति के ‘दुराज’ शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है-प्रथम बुरा राज या कुशासन और दूसरा अर्थ दो राजाओं का एक साथ शासन करना। अत: जब देश में कुशासन (बुरी शासन व्यवस्था) होगा तो स्वाभाविक है कि प्रजाओं के कष्ट बढ़ेंगे। इसी प्रकार यदि एक ही प्रदेश पर दो राजा एक साथ राज करेंगे तो उससे शासन दो गुना अच्छा हो जायगा, ऐसी बात नहीं होती। दोनों राजाओं की आपसी होड़, असहमति और योग्यता में भिन्नता होने से प्रजा का कष्ट और अधिक बढ़ जाएगा। कवि ने सूर्य और चन्द्रमा का उदाहरण देकर, इस तथ्य को प्रमाणित किया है।
प्रश्न 10.
संकलित दोहों में से एक ऐसे दोहे का उल्लेख और स्पष्टीकरण कीजिए, जिसमें कवि द्वारा किया गया ‘विरह वर्णन’ अस्वाभाविक और हास्यास्पद प्रतीत होता है।
उत्तर:
ऐसा एक दोहा निम्नलिखित हैआड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति। साहसु ककै सनेह बस, सखी सबै ढिंग जाति। इस दोहे में नायिका विरह के ताप से तप रही है। जाड़े की ऋतु है, उस पर भी रात का समय है। विरहिणी की सखियाँ प्रेमवश उसके पास जाकर उसे सांत्वना देना चाहती हैं किन्तु उसके शरीर से निकलते ताप के कारण सखियाँ गीले कपड़ों की आड़ लेकर बड़ी हिम्मत करके उसके पास जा रही हैं। भला किसी के शरीर से निकलता ताप क्या इतना तीव्र हो सकता है। यह विरह वर्णन सर्वथा अस्वाभाविक और मजाक-सा लगता है।
RBSE Class 11 Hindi अपरा Chapter 5 निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संकलित दोहों के आधार पर कवि बिहारी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
बिहारी मूलत: एक श्रृंगारी कवि थे। उनकी प्रसिद्धि का आधार भी उनकी श्रृंगारपरक रचनाएँ ही हैं। ऐसा लगता है कि वृद्धावस्था आने पर इस रसिक और चमत्कार प्रिय कवि का ध्यान भगवान की ओर गया और इन्होंने कुछ भक्तिभाव से पूर्ण रचनाएँ । हमारी पुस्तक में संकलित अनेक दोहों से कवि बिहारी लाल की भक्ति-भावना का परिचय मिलता है। कवि के इष्टदेव श्रीकृष्ण और राधा हैं। कवि ने राधा जी को संबोधित करते हुए अपनी भव-बाधा को हरने की प्रार्थना की है।
किन्तु उक्ति-वैचित्र्य प्रेमी कवि यहाँ भी अपनी वाक्पटुता और अलंकारप्रियता दिखाने से नहीं चूका है ‘जा तन की झाँईं परें, स्याम हरित दुति होय।’ कवि अपनी कुटिलता को छोड़े बिना ही दीनदयाल को अपने हृदय में बसा लेना चाहता है। बिहारी भगवान से मोक्ष भी अपना अधिकार समझते हुए माँगते हैं। उनके अनुसार संसार-सागर से तरने का एकमात्र उपाय भगवान का स्मरण करना है। वह अपने कर्मों पर भगवान की नींकी दृष्टि चाहते हैं। तभी उनकी बिगड़ी बन सकती है। इस प्रकार बिहारी की भक्ति भावना में सखा-भाव की प्रधानता है।
प्रश्न 2.
कवि बिहारी के विरह वर्णन की विविधता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
पाठ्य-पुस्तक में संकलित बिहारी के दोहों में उनके विरह-वर्णन की विविधता पर प्रकाश पड़ता है। बिहारी के विरह-वर्णन का एक रूप सांकेतिक विरह वर्णन है, जिसमें कवि ने विरह दशा की ओर संकेत मात्र किया है। जैसेअब तजि नाँउ उपाव कौं, आए पावस-मास। खेलु न रहिबौ खेम सौं, केम-कुसुम की वास दूसरी पंक्ति में खेम से रह पाने की धारणा स्पष्ट नहीं है। विरह वर्णन का दूसरा रूप विरहिणी की वेदना को मर्मस्पर्शी रूप में व्यक्त करता है। जैसे ‘कौन सुनै, कासौं कहाँ, सुरति बिसारी नाह।’ विरह वर्णन के एक स्वरूप में कवि को उक्ति चातुर्य और अलंकार-प्रेम व्यक्त हुआ है। जैसेरह्यौ ऐचि अंतु न लहै, अवधि-दुसाशन बीरु।
आली, बाढ़तु बिरह ज्यौं, पांचाली कौ चीरु॥ यहाँ विरहिणी विरह-वेदना व्यक्त ने करके काव्य-रचना करती प्रतीत हो रही है। विरह-वर्णन का एक और रूप भी बिहारी के काव्य में उपस्थित है जो कि विरह-वर्णन की फारसी पद्धति से प्रभावित है। उस विरह-वर्णन में अतिशयोक्ति के कारण अस्वाभाविकता आ गई है। ‘सुनत पथिक मुँह माह निसि चलति लुर्वै उहिं गाँम।’ आड़े दै आले वसन, जाड़े हूँ की राति। साहसु ककै, सनेह-बस, सखी सबै ढिंग जाति।’ ऐसे ही उदाहरण हैं।
बिहारी कवि परिचय
जीवन-परिचय-
रीतिकालीन कवियों में बिहारी का अपना अलग ही स्थान है। आपकी श्रृंगार रस की रचनाएँ हिन्दी काव्य की अमूल्य निधि हैं। बिहारी का जन्म ग्वालियर के पास बसुआ गोविन्दपुर में सन् 1595 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था। बिहारी ने संस्कृत, ज्योतिष, नीति शास्त्र आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। यह दिल्ली के शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) के आश्रय में कुछ समय रहे। आमेर के राजा जयसिंह ने इनकी वार्षिक वृत्ति बाँध दी। नई रानी के मोहपाश से जयसिंह को मुक्त करने के लिए, बिहारी ने एक दोहा राजा के पास भिजवाया। इस दोहे से राजा की आँखें खुल गईं और उसने प्रसन्न होकर बिहारी को जागीर प्रदान कर दी। इसके बाद बिहारी आमेर में ही रहने लगे। इनका निधन सन् 1663 में हुआ।
साहित्यिक परिचय–बिहारी का एकमात्र काव्य ग्रन्थ उनकी ‘सतसैया’ नामक रचना है। इसमें विविध विषयों पर 713 दोहे तथा सोरठे हैं। ‘सतसैया’ या सतसई पर अनेक कवियों और विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं। इस काव्यग्रन्थ से बिहारी की बहुज्ञता और काव्य-कौशल का परिचय प्राप्त होता है।
बिहारी श्रृंगारी कवि हैं और उन्हें चमत्कार युक्त कथन प्रस्तुत करना विशेष प्रिय है। शृंगार रस के सभी अंग बिहारी की कविता में उपस्थित हैं। अनुभावों के सजीव और हृदयस्पर्शी प्रस्तुतीकरण में बिहारी बहुत प्रवीण हैं। भक्ति तथा नीति पर भी बिहारी ने दोहों और सोरठों की रचना की है।
बिहारी के कलापक्ष की सबसे बड़ी विशेषता दोहे जैसे छोटे छंद में वृहत् अर्थ भर देना है। इनके काव्य के बारे में ‘गागर में सागर भरने’ की उक्ति प्रचलित है।
बिहारी का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। सटीक शब्द-चयन और व्यंजना तथा लक्षणा प्रधान भाषा का प्रयोग हुआ है। शब्दचित्र प्रस्तुत करने में बिहारी अत्यन्त कुशल हैं। लोकोक्ति और मुहावरों के प्रयोग से उन्होंने कथन को प्रभावशाली बनाया है।
पाठ परिचय
इस पाठ में बिहारी के विविध विषयों पर रचित 24 दोहे संकलित हैं। इनमें भक्ति, नीति, श्रृंगार तथा रूप वर्णन आदि विषयों पर कवि ने अपने विचार, वर्णन कौशल और भक्ति भाव को परिचय कराया है।
संकलन के प्रथम दोहे से पाँचवें दोहे तक बिहारी के भक्तिपरक दोहे संकलित हैं। इनमें कवि ने राधा नागरि से भव-बाधा दूर करने की प्रार्थना की है। अपनी कुटिलता के बल पर दीन दयाल की कृपा चाही है। अधमता को मोक्ष प्राप्ति को आधार बताया है। संसार सागर से पार जाने के लिए माला की पतवार और हरि नाम की नाव आवश्यक बताई है।
‘श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के शब्द-चित्र प्रस्तुत हुए हैं। वर्षा ऋतु वियोगिनी के लिए एक चुनौती बनकर आई है। कहीं वियोगिनी के विरह तप्त शरीर से लुएँ चल रही हैं। वियोग श्रृंगार का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है। वियोग को पांचाली का चीर बताया गया है।
नीति-वर्णन के अनेक दोहे इस संकलन में विद्यमान हैं। प्रकृति वर्णन में प्रकृति के अनेक अंगों का चित्रण है। रूप वर्णन में कुटिल अलकों से मुख की शोभा में वृद्धि हो रही है। भौंह कमानों से अचूक निशाने लगाए जा रहे हैं।
दोहे
पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1.
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झाँईं परें, स्यामु हरित-दुति होइ॥
करौ कुवतु जगु कुटिलता, तजौं न दीनदयाल।
दुखी हो हुगे सरल हिय, बसत त्रिभंगी लाल॥
मोहूँ दीजै मोषु, ज्यों अनेक अघमनु दियौ।
जौ बाँधै ही तोषु, तौ बाँधौ अपनै गुननु॥
कठिन शब्दार्थ-भव-बाधा = सांसारिक कष्ट। हरौ = हर लो, दूर कर दो। नागरि = चतुर। सोइ = वे ही। झाँईं = झलक। स्याम = श्रीकृष्ण, नील वर्ण, पाप। हरित-दुति = हरी कान्ति, प्रसन्न, कान्तिहीन। कुबतु = बुराई, आलोचना। कुटिलता = टेढ़ापन, दुष्टता। तजौ न = नहीं छोड़ सकता। सरल = सीधा, कपटरहित। त्रिभंगी = तीन स्थानों से झुके हुए या टेढ़े। मोषु = मोक्ष, छुटकारा। अघमनु = पापियों को। बाँधे = बाँधने से। तोषु = संतोष। गुननु = गुणों से, रस्सियों से।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संग्रहीत बिहारी के दोहों से उधृत हैं। इन दोहों में कवि ने राधा नागरि और श्रीकृष्ण से सांसारिक कष्टों को दूर करने और उद्धार करने की प्रार्थना की है।
व्याख्या-कवि बिहारी कहते हैं कि वह चतुर राधा उनकी सांसारिक बाधाओं या कष्टों को दूर कर दें, जिनके गौर वर्ण शरीर की झलक पड़ने से श्रीकृष्ण का श्याम (नीला)वर्ण हरी कान्ति वाला हो गया है। अथवा जिनकी झलक पाकर श्रीकृष्ण अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं अथवा जिनकी शरीर की झलक के सामने श्रीकृष्ण कान्तिहीन से हो जाते हैं अथवा जिनकी झलक मात्र देखते ही प्राणी के पाप या दोष प्रभावहीन हो जाते हैं।
कवि बिहारी कहते हैं कि वह अपनी कुटिलता-टेढ़ापन या दुष्टता नहीं त्यागेंगे, चाहे संसार उनकी कितनी भी बुराई क्यों न करें। क्योंकि इससे उनके आराध्य त्रिभंगी लाल (तीन स्थानों से टेढ़े, गर्दन, कटि और चरण) को बड़ा कष्ट होगा। कुटिलता त्यागने पर उनका हृदय सरल या सीधा हो जाएगा। उस सीधे हृदय में टेढ़े श्रीकृष्ण को निवास करने में बड़ी असुविधा होगी।
कवि बिहारी भगवान श्रीकृष्ण से आग्रह कर रहे हैं कि वह उनको भी उसी आधार पर मोक्ष (मुक्ति) प्रदान कर दें, जिस आधार पर उन्होंने वधिक, अजामिल और गणिका आदि पापियों को मोक्ष प्रदान किया है। यदि वह उनको बाँधकर ही रखना चाहते हैं, मुक्ति नहीं देना चाहते, तो फिर उनको सांसारिक बन्धनों में नहीं, अपने गुणों रूपी रस्सियों में बाँधकर रखें।
विशेष-
(i) प्रथम दोहे में कवि ने श्री राधा की स्तुति के बहाने अपने श्लेष अलंकार के चमत्कार का प्रदर्शन किया है।’झाँई परें। और ‘स्याम हरित दुति’ में कवि बिहारी ने अपनी ‘गागर में सागर’ भरने की विशेषता प्रस्तुत की है।
(ii) दूसरे दोहे में कवि ने अपनी उक्ति चमत्कार की कुशलता का प्रमाण दिया है। कवि ने अद्भुत तर्क देकर अपनी ‘कुटिलता’ को संरक्षण प्रदान किया है। भगवान तो ‘अकुटिल’ (सरल हृदय) भक्तों के हृदयों में निवास करते हैं किन्तु कवि बिहारी ने उन्हें दीनदयाल त्रिभंगी लाल कह कर, अपने कुटिल हृदय को ही उनका सुखद निवास सिद्ध कर दिया है।
(iii) तीसरे दोहे में कवि बिहारी श्रीकृष्ण की अदालत में एक अधिवक्ता (वकील) की भाँति अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए तर्क दे रहे हैं। यदि उन्हें अधम (पापी) माना जाता है तो अन्य महापापियों के उद्धार की नजीर पेश है और यदि उन्हें बाँधकर ही रखा जाना है तो प्रभु उन्हें अपने गुणों रूपी रस्सियों से बाँधकर रख लें। कवि के तो दोनों हाथों में लड्डू हैं। कवि ने ‘मोषु’ और ‘गुननु’ शब्दों में श्लेष अलंकार के द्वारा चमत्कार उत्पन्न किया है।
(iv) तीनों ही दोहों की भाषा साहित्यिक, अर्थगाम्भीर्य से युक्त और काव्य-कौशल के प्रदर्शन में सहायक है।
(v) प्रथम दोहे में श्लेष अलंकार का सौन्दर्य है। दूसरे दोहे में व्यंजना शब्द शक्ति और उक्ति चमत्कार का प्रदर्शन है तथा तीसरे दोहे में कवि ने श्लेष अलंकार और अपनी तर्क प्रवीण बुद्धि का परिचय कराया है।
2.
पतवारी माला पकरि, और न कछु उपाउ।
तरि संसार पयोधि कौं, हरि नावें करि नाउ॥
तौ, बलियै, भलियै बनी, नागर नंद किसोर।
जौ तुम नीकै कै लख्यौं, मो करनी की ओर॥
कठिन शब्दार्थ-पतवारी = पतवार। उपाउ = उपाय। तरि = पार कर ले। संसार-पयोधि = संसाररूपी समुद्र। नावें = नाम को। नाउ = नाव। बलियै = बलिहारी। भलियै = भली प्रकार। नागर = चतुर। नी* = अच्छी प्रकार। कै = करके। लख्यौ = देखा, ध्यान दिया। मो = मेरी। करनी = कार्य।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित बिहारी के दोहों से उद्धृत हैं। इनमें कवि बिहारी ने भगवान के भजन से ही संसार-सागर से पार होना सम्भव बताया है और अपना उद्धार प्रभु की कृपा दृष्टि से ही होना सम्भव माना है, न कि अपने धर्मों के आधार पर।।
व्याख्या-कवि बिहारी कहते हैं यदि संसार रूपी सागर से पार जाना है, अपना उद्धार कराना है, तो भगवन्नाम को नाव बनाकर और माला को पतवार बनाकर ही यह सम्भव हो सकता है। इसके अतिरिक्त और किसी भी उपाय से ऐसा होना सम्भव नहीं है।
कवि बिहारी भगवान से कह रहे हैं-हे चतुर नंद किशोर ! यदि आपने मेरे कर्मों पर अधिक ध्यान दिया तब तो मेरा उद्धार होना कभी सम्भव नहीं हो सकता। आप नागर अर्थात् परम चतुर हैं, इस बात को भली प्रकार जानते हैं। अतः अब तो मुझे केवल आपकी कृपा का ही भरोसा है। मैं आपकी बलिहारी जाता हूँ, मुझ पर दया दृष्टि डालकर मेरा उद्धार कर दीजिए।
विशेष-
(i) कवि ने भगवान के नाम के स्मरण को ही मनुष्य के उद्धार का सबसे सरल उपाय बताया है।
(ii) कवि मनुष्य को सत्कर्मों का अहंकार त्यागकर,भगवान की दया दृष्टि पाने का परामर्श दे रहा है। इसी से उसकी बिगड़ी बात बन सकेगी।
(iii) ‘पतवारी माला’, ‘संसार-पयोधि’ तथा ‘हरी नावें करि नाउ’ में रूपक अलंकार है।
(iv) कवि ने चतुराईपूर्ण निवेदन करके,’नागर नंद किशोर’ की कृपा दृष्टि पाने का प्रयास किया है।
(v) व्यंजना शब्द शक्ति और सामासिक वर्णन शैली का प्रभावशाली उपयोग किया गया है।
3.
अब तजि नाउँ उपाव कौं, आए पावस-मास।
खेलु न रहिबौ खेम सौं केम-कुसुम की वास।.
कठिन शब्दार्थ-तजि = त्याग दें। नाउँ= नाम। उपाव = उपाय। पावस-मास = वर्षा ऋतु। खेल = सहज काम, आसान बात। रहिबौ = रहना। खेम सौं = क्षेमपूर्वक, कुशल से। केम-कुसुम = कदंब के फूल। वास = सुगंध।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कविवर बिहारी के दोहे से उद्धृत है। इस दोहे में वियोगिनी नायिका की सखी उसे सावधान कर रही है कि आगे वियोग के और भी कठिन दिन आने वाले हैं।
व्याख्या-सखी नायिका से कहती है-अब तक तुम अपने प्रिय का नाम ले-लेकर अपने आपको धीरज बँधाती रहीं लेकिन अब यह उपाय काम नहीं देगा। अब वर्षा ऋतु आ गई है। वनों और बागों में अब कदंब के वृक्षों पर फूल आएँगे। इन फूलों की मादक गंध के फैलने पर, मन को काबू में रखकर, सकुशल रह पाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। अब तो तुम्हें अपने प्रियतम की याद और भी अधिक सताएगी। अतः अब कुछ और उपाय सोचो जिससे ये वर्षा के मास किसी तरह निकल जाएँ।
विशेष- (i) कवि ने व्यंजना शब्द शक्ति का उपयोग करते हुए एक विरहिणी की विरह-व्यथा का परिचय कराया है।
(ii) खेलु न …………………… खेम सौं’ उक्ति द्वारा कवि ने वियोगावस्था की व्याकुलता का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन किया है।
(iii) भाषा थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह रही है।
4.
आवत जात न जानियतु, तेजहिं तजि सियरानु।
घरहँ जॅवाई लौं घट्यौ, खरौ पूस दिन मानु॥
कठिन शब्दार्थ-आवत = आते हुए। न जानियतु = पता नहीं चलता। तेजहिं = गर्मी को; स्वभाव की तेजी को। तजि = त्यागकर। सियरानु = ठंडा हो गया है; नम्र हो गया है। घरहँ-जॅवाई = घर ज़माई, ससुराल में रहने वाला दामाद। खरौ = बहुत।। पूस-दिन = पूस का दिन, शीत ऋतु का दिन। मान = सम्मान, माप, अवधि।
प्रसंग तथा संदर्भ- प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित बिहारी के दोहों से उधृत है। कवि पूस के महीने में दिन के छोटा हो जाने की तुलना, एक घर जमाई (ससुराल में रहने वाले दामाद) के स्वभाव में आने वाले परिवर्तन से कर रहा है।
व्याख्या- कवि कहता है कि पूस के महीने के दिन और घर जमाई का स्वभाव एक जैसा होता है। जैसे ससुराल में दिन बिताने वाला दामाद घर में कब आता है और कब बाहर जाता है, पता नहीं चलता। इसी प्रकार पूस में दिन कब आरम्भ हुआ और कब बीत गया पता ही नहीं चलता। जैसे घर जमाई अपने स्वभाव की तेजी को त्यागकर ठंडा (विनम्र) होकर रहता है, इसी प्रकार पूस का दिन भी गर्मी को त्यागकर ठंडा हो गया है। जैसे घर जमाई का ससुराल में रहने से सम्मान घट जाता है, उसी प्रकार पूस के दिन का ‘मान’ भी घट गया है। दिन छोटा हो गया है।
विशेष-
(i) कवि द्वारा पूस के दिन की तुलना एक घर जमाई से किया जाना बड़ा सटीक लगता है।
(ii) घर जमाई के सारे लक्षण कवि ने पूस के दिन पर घटाए हैं।
(iii) मानक ब्रज भाषा का प्रयोग है।
5.
सुनत पथिक-मुँह माह-निसि, चलति लुवें उहिं गाँम।
बिनु बुझें, बिनु ही कहैं, जियत बिचारी बाम॥
कठिन शब्दार्थ-पथिक-मुँह = पथिक के मुख से। माह-निसि = माघ के मास की रात। लुर्वै = लू, गर्म हवा। उहिं = उस। बूझे = पूछे। जियत = जीवित है। बाम = स्त्री, पत्नी।
प्रसंग और संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कविवर बिहारी के दोहों से लिया गया है। इस दोहे में कवि ने एक विरहिणी के विरह से तपते शरीर का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है।
व्याख्या-एक विरहिणी का पति कार्यवश विदेश में था। उसे उसके गाँव से आए एक पथिक ने बताया कि उस गाँव में शीत ऋतु के महीने माघ की रात में लुएँ (गर्म हवाएँ) चल रही हैं। उतना सुनते ही विरहिणी के पति ने बिना कुछ पूछे और पथिक के बिना बताए ही जान लिया कि उसकी पत्नी जीवित थी। भाव यह है कि उस विरहिणी के वियोग के ताप से तपते शरीर को छूकर माघ की अत्यन्त ठंडी वायु लू बन गई थी।
विशेष-
(i) रीतिकालीन कवियों का अतिशयोक्तिपूर्ण विरह-वर्णन की इस दोहे में पूरी झलक है। एक व्यक्ति के शरीर के ताप से पूरे गाँव में, घोर जाड़ों में, लुएँ चला देना, कोई बिहारी जैसा कवि ही कर सकता है।
(ii) वियोग श्रृंगार रस की अनूठी सृष्टि दोहे में हुई है।
(iii) दोहे की मात्र दो पंक्तियों में कवि ने बहुत कुछ कह दिया है।
(iv) अतिशयोक्ति अलंकार है।
(v) भाषा पर कवि के पूर्ण अधिकार का परिचय मिल रहा है।
6.
नहिं पावसु ऋतुराज यह, तजि तरवर चित-भूल।
अपतु भएँ बिनु पाइहै, क्यौं नव दल, फल फूल।
रुक्यौ सांकरैं कुंज-मग, करतु झाँझि झकुरातु।
मंद-मंद मारुत-तुरँगु, बूंदतु आवतु जातु॥
कठिन शब्दार्थ-पावसु = वर्षा ऋतु। ऋतुराज = वसंत ऋतु। तजि = त्याग दे। तरवर = वृक्ष। चित-भूल = मन की भूल। अपतु = बिना पत्तों वाला, मर्यादाहीन। नव = नए। दल = पत्ते। रुक्यौ = रुका हुआ। साँकरें = संकीर्ण, कम चौड़ा सँकरा। कुंज-मेग = कुंजों के बीच का मार्ग। झाँझि = शरीर को झटकता, रुष्टसा। झकुरातु = झुकता हुआ। मारुत = पवन। तुसँग = घोड़ा। खुदतुं = बूंदता हुआ-सा, टाप पटकते हुए चलना।।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी लाल रचित दोहों में से उद्धृत हैं। पहले दोहे में कवि ने वृक्ष के माध्यम से अन्योक्ति द्वारा अपनी बात कही है कि संसार में कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना या त्यागना पड़ता है। दूसरे दोहे में कवि ने रूपक के माध्यम से कुंजों से होकर आते वायु को एक झुंझलाए हुए घोड़े को रूप प्रदान किया है।
व्याख्या-वृक्ष को संबोधित करते हुए कवि कहता है-हे तरुवर ! चित्त में यह बात ध्यान में रखो कि यह वर्षा ऋतु का समय नहीं है कि बिना कुछ त्यागे तुम हरे-भरे हो जाओ। यह तो वसंत ऋतु है। इस ऋतु में तो सारे पत्तों का त्याग किए बिना तुम्हें नए पत्ते, फल और फूल नहीं मिलने वाले हैं।
कवि कहता है कि यह मंद पवन एक झुंझलाया हुआ घोड़ा है। कुंजों के अत्यन्त सँकरे मार्ग से निकलने में इसे कठिनाई हो रही है, इसे रुक-रुक कर बढ़ना पड़ रहा है। अत: यह धरती को बूंदता हुआ या टापे पटक-पटक कर रोष प्रकट करता हुआ, मंद-मंद गति से आ और जा रहा है।
विशेष-
(i) कवि ने इस प्रसिद्ध उक्ति को चरितार्थ किया है कि संसार में कुछ पाने के लिए, कुछ खोना भी पड़ता है। वर्षा ऋतु में पेड़-पौधे वर्षा के जल से नवजीवन पाकर हरे-भरे हो जाते हैं किन्तु बसन्तु ऋतु में नए पत्ते, फूल और फल उन्हें तभी मिलते हैं जब वे पतझर में अपने सारे पत्ते त्याग देते हैं।
(ii) ‘अपतु भएँ बिनु’ में यह भाव भी निहित है कि वैभवसम्पन्न होने के लिए मनुष्य को अनेक मर्यादाओं का त्याग करना पड़ जाता है।
(iii) कवि ने साँगरूपक का प्रयोग करते हुए मंदगामी वायु को पूर्णत: एक घोड़े का रूप दे दिया है।
(iv) कवि का सूक्ष्म निरीक्षण भी यहाँ प्रत्यक्ष हो रहा है। सँकरे मार्ग से निकलते घोड़े की चेष्टाओं का कवि ने सजीव चित्रण किया
(v) दोनों दोहे बिहारी के आलंकारिक प्रकृति-वर्णन के सुन्दर उदाहरण हैं।
(vi) तजि-तरवर’ तथा ‘दल, फल, फूल’ में अनुप्रास अलंकार है।
7.
दूसरे दोहे में कविवर बिहारी का प्रिय अलंकार सांगरूपक है।
तंत्री-नाद, कवित्त-रस, सरस-राग, रति-रंग। अनबूड़े-बूड़े,
तरे जे बूड़े सब अंग॥ कनक कनक रौं सौ गुनी,
मादकता अधिकाइ। उहिं खाएँ बौराइ जगु, इहि पाएँ बौराई॥
कठिन शब्दार्थ-तंत्री-नाद = वीणा या बाजों का मधुर स्वर। कवित्त-रस = काव्य से प्राप्त आनंद। सरस-राग = मधुर संगीत। रति-रंग = प्रेम का मधुर प्रभाव। अनबूड़े = जो नहीं डूबे, आनंद नहीं लिया। बूड़े = डूब गए, जीवन व्यर्थ गया, बूढ़े हो गए। तरे = पार हो गए। बूड़े = डूबकर आनंद लिया। सब-अंग = सारे अंगों सहित, बिना संकोच के। कनक = सोना, धन-सम्पत्ति। कनक = धतूरा, एक मादक फल। मादकता = मद, नशा। अधिकाय = अधिक। उहिँ = उसे। खाए = खाने पर। बौराइ = पागल होता है। बौराई = अहंकारी हो जाता है।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि बिहारी के नीति-परक दोहों में से उद्धृत हैं। प्रथम दोहे में कवि ने सांसारिक सुखों से बचकर रहने वालों पर व्यंग्य किया है। कवि के अनुसार ऐसे व्यक्तियों का जीवन व्यर्थ होता है।
दूसरे दोहे में कवि ने धन के प्राप्त होने या बढ़ जाने पर मनुष्य के अहंकारी हो जाने की ओर संकेत किया है।
व्याख्या-कवि कहता है कि वीणा आदि बाजों के मधुर स्वरों का, काव्य पाठ के सुनने का, चित्त को रस-विभोर कर देने वाले संगीत और किसी के प्रेम में मग्न होने का, जो आनंद है, उससे दूर रहने वाले लोगों का जीवन तो व्यर्थ जाता है। जो इन सुखों के बिना किसी संकोच के, पूरे मन से, आनंद लेते हैं उन्हीं का जीवन सार्थक है।
कवि दूसरे दोहे में धन के मद को सबसे बड़ा बता रहा है। वह कहता है कि स्वर्ण या धन-सम्पत्ति प्राप्त होने पर मनुष्य को जो नशा( अहंकार) हो जाता है वह धतूरे जैसे विषैले और मादक फल के प्रभाव से सौ गुना अधिक होता है। क्योंकि धतूरे को तो जब मनुष्य खाता है तब उसका नशा चढ़ता है, परन्तु सोने के तो मिल जाने मात्र से ही मनुष्य पागल सा हो जाता है। उसका चित्त ठिकाने नहीं रहता। वह अहंकार के नशे में डूब जाता है।
विशेष-
(i) कवि का संदेश है कि मनुष्य सभी सांसारिक सुखों का आनंद ले किन्तु उनको ईश्वर से जोड़कर भोगे। उनमें लिप्त न हो। तभी उसका उद्धार सम्भव है।
(ii) कवि ने धन के अहंकार से बचने का संदेश दिया है।
(iii) ‘अनबूड़े-बूड़े’ तथा ‘तरे जे बूड़े सब अंग’ में विरोधाभास अलंकार है।
(iv) ‘कनक-कनक’ में यमक अलंकार है।
(v) कवि का चमत्कारपूर्ण ढंग से बात को कहना, संदेश को बल प्रदान कर रहा है।
8.
नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली, कली ही सौं बिंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥
नीच हियँ हुलसे रहैं, गहे गेंद के पोत।
ज्यौं-ज्य माधैं मारियत, त्यौं-त्यौं ऊँचे होत॥
कठिन शब्दार्थ-पराग = फूल का सुगंध युक्त भाग, रजस्वला होना। मधु = शहद, मधुर आनंद। विकास = खिल जाना, अंगों का विकसित होना। अली = भौंरा, राजा जयसिंह। कली = अनखिला फूल, नई आयु वाली जयसिंह की रानी। बिध्यौं = आसक्त, मुग्ध। आगै = भविष्य में, यौवन प्राप्त करने पर। हवाल = हाल, दशा।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कविवर बिहारी के दोहों से उधृत है। प्रथम दोहे में कवि बिहारी ने आमेर के राजा जयसिंह को सचेत किया है कि वह अपनी नई रानी के मोहपाश से मुक्त होकर राजकाज पर ध्यान दें। दूसरे दोहे में नीच प्रकृति लोगों से गेंद की तरह व्यवहार करना उचित बताया है।
व्याख्या-कवि अन्योक्ति के द्वारा आमेर के राजा जयसिंह को सचेत कर रहा है। भौरे को माध्यम बनाकर कवि कहता है-अरे पागल भौंरे ! जिसमें अभी न सुगंधित पराग है न मधुर शहद है और न यह इसके विकास (खिलने) का समय है, यह अभी एक कली है। जब तू इस कली पर ही इतना आसक्त है तो इसके फूल बनने पर तेरा क्या हाल होगा?
कवि बिहारी ने भौरे के माध्यम से राजा जयसिंह को संबोधित किया है। अपनी नवोढ़ा रानी के प्रेम में अनुरक्त राजा ने अपना राजकाज ही भुला दिया था। कवि उसे सचेत कर रहा है-राजन! अभी रानी के यौवन की यह आरम्भ-काल है। अभी इनकी स्थिति एक फूल की कली जैसी है। जिसमें न पराग है, न मधु और न खिलने का सौन्दर्य है। जब आप अभी से रानी के मोहपाश में इस प्रकार बँधे पड़े है तो आगे क्या होगा। आपके राज की क्या दशा होगी ?
दूसरे दोहे में कवि ने नीचे व्यक्ति और गेंद के खेल में समानता दिखाई है। कवि कहता है कि नीच प्रकृति के लोगों के साथ गेंद की तरह व्यवहार किया जाता है तो वे बड़े प्रसन्न रहते हैं। गेंद को जितना ही भूमि पर पटका जाता है वह उतनी ही ऊँची उछलती है। इसी प्रकार नीच स्वभाव के व्यक्तियों को जितना कठोर अनुशासन में रखा जाता है, वे उतना ही सुधरते जाते हैं। प्रसन्न रहते हैं।
विशेष-
(i) अन्योक्ति कवि बिहारी की प्रिय वर्णन या कथन शैली है। कवि वर्णन किसी का करता है और उसका लक्ष्य कोई और होता है।
(ii) दूसरे दोहे में कवि ने दृष्टान्त अलंकार द्वारा नीच प्रकृति के लोगों से व्यवहार की रीति-नीति समझाई है।
(iii) ‘अली कली ………………… हवाल।’ पंक्ति द्वारा कवि ने राजा जयसिंह पर मार्मिक और मार्गदर्शक व्यंग्य किया है।
(iv) ‘मधुर मधु’, ‘अली कली’ तथा ‘माँथें मारियत’ में अनुप्रास अलंकार है।
9.
स्वारथु, सुकृत न श्रम वृथा, देखि, बिहंग बिचारि।
बाज, पराएँ पानि परि तूं पच्छीनु न मारि॥
कठिन शब्दार्थ-स्वारथु = स्वार्थ, अपना भला। सुकृत = पुण्य, भला काम। श्रमु = परिश्रम, प्रयत्न। वृथा = व्यर्थ। बिहंग = पक्षी (बाज)। बिचारि = मन में विचार करके। बाज = शिकारी पक्षी। पराएँ = दूसरे के। पानि परि = वश में आकर, हाथ पड़कर। पच्छीनु = पक्षियों को।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी के दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि ने अन्योक्ति द्वारा, राजा जयसिंह को औरंगजेब की अधीनता में रहते हुए, अपने ही धर्म के छोटे-छोटे राजाओं पर प्रहार न करने का संदेश दिया है।
व्याख्या-कवि बाज के माध्यम से राजा जयसिंह की धर्मबुद्धि को जगाना चाहता है। बाज को संबोधित करते हुए कवि कहता है-हे पक्षी बाज ! तनिक अपने मन में विचार कर। तू अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए, उसके आदेश पर निरीह पक्षियों को मारता रहता है। इससे न तो तेरा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न तुझे इस कार्य से कोई पुण्य मिलने वाला है। तेरा सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है क्योंकि तेरे कठोर कर्म का लाभ तेरा स्वामी उठाता है। तू तो व्यर्थ ही जीवहत्या का पापी होता है।
इस अन्योक्ति का लक्ष्य आमेर का राजा जयसिंह है जो कवि बिहारी के आश्रयदाता हैं। वह औरंगजेब के आदेश पर अपने ही धर्मानुयायी छोटे हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करते रहते थे। बिहारी उन्हें बाज का उदाहरण देकर इस अनुचित आचरण से विरत करना चाहते थे। अत: उन्होंने संकेत किया है कि सारा श्रेय औरंगजेब को जाता है और राजा जयसिंह अन्यायी सिद्ध होते हैं। उन्हें औरंगजेब के हाथों की कठपुतली बनकर अपने ही वर्ग के राजाओं पर अत्याचार नहीं करना चाहिए।
विशेष-
(i) कवि ने कविता के माध्यम से अपने आश्रयदाता का मार्गदर्शन करना चाहा है।
(ii) बाज और राजा जयसिंह को एक समान दिखाकर राजा के मन में आत्मग्लानि जगाने का प्रयत्न किया है।
(iii) कथन को प्रभावशाली बनाने को सटीक शब्दों का चुनाव किया गया है।
(iv) ‘स्वारथु, सुकृत न श्रम वृथा’, ‘बिहंग बिचारि’, ‘पराएँ पानि परि’ में अनुप्रास अलंकार है।
10.
लाज-लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहिं।
ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं, ऐचत हूँ चलि जाहिं॥
जोग-जुगति सिखए सबै, मनौ महामुनि नैन।
चाहत पिय-अद्वैतता कानन सेवत नैन॥
कठिन शब्दार्थ-लाज-लगाम = लज्जारूपी लगाम। न मानहीं = नहीं मानते, नहीं रुकते। नैना = नेत्र। मो = मेरे। बस = वश में। मुँहजोर = हठी, उद्दंड। तुरंग = घोड़ा। ज्यों = समान। ऐचत हूँ= खींचते हुए भी, लगाम लगाते हुए भी। चलि जाहिं = बढ़े चले जाते हैं। जोग-जुगति = योग साधना का ढंग, मिलन का उपाय। सिखए = सिखाए गए। मनौ = मानो। महामुनि = महान मुनि। मैन = कामदेव। प्रिय-अद्वैतता = प्रियतम से मिलन, ईश्वर से एकाकार होना। कानन = कानों तक फैले, विशाल, वन। सेवत = समीप रहना, वास करना।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहे हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कविवर बिहारी लाल के दोहों से उद्धृत हैं। दोनों दोहों में कवि ने नायिकाओं के सुन्दर विशाल और हठी नेत्रों को वर्णन का विषय बनाया है।
व्याख्या-नायिका-प्रेम में मग्न युवती-कहती है कि उसके नेत्र उसके वश में नहीं हैं। ये नेत्र हठी या वश से बाहर हुए घोड़ों के समान हैं। जैसे उदंड घोड़े लगाम लगाने पर भी नहीं रुकते उसी प्रकार ये नेत्र भी लोक-लाज की चिन्ता न करते हुए, मेरे रोकने पर भी न रुक कर नायक (श्रीकृष्ण) की ओर खिंचे चले जाते हैं। भाव यह है कि लोक लज्जा के कारण युवती श्रीकृष्ण की ओर नहीं देखना चाहती किन्तु उसके नेत्र बरबस श्रीकृष्ण के सौन्दर्य से आकर्षित हो देखने लगते हैं।
कवि किसी प्रिय-मिलन की उत्सुक युवती के काननचारी अर्थात् विशाल नेत्रों का वर्णन करते हुए कहता है लगता है इन नेत्रों को कामदेव रूपी महान मुनि ने योग (प्रिय मिलन) की सारी युक्तियों या प्रिय मिलन के सारे उपाय, अच्छी प्रकार से सिखा दिए हैं। तभी तो ये कानों के पास तक फैले या कानन अर्थात वन में निवास करने वाले नेत्र, अपने प्रिय से अथवा ईश्वर से एक हो जाना चाह रहे हैं।
विशेष-
(i) जब मन प्रेम-बन्धन में बँध जाता है तो नेत्र बेलगाम हो जाते हैं। वश में नहीं रहते। इसी तथ्य को कवि बिहारी ने सांगरूपक अलंकार द्वारा प्रस्तुत किया है।
(ii) महान मुनि का शिष्य और नायिका के बड़े-बड़े नेत्र दोनों ही ‘प्रिय अद्वैतता’ अर्थात् अपने प्रिय से मिलन चाहते हैं किन्तु दोनों की साधनाएँ अलग-अलग हैं। मुनि का शिष्य वन में रहकर योग साधना द्वारा प्रिय ईश्वर को पाना चाहता है और सुन्दरी के नेत्र अपनी विशालता के आकर्षण से अपने प्रिय (नायक या श्रीकृष्ण) को पाना चाहते हैं।
(iii) दोनों ही दोहे प्रेम-प्रसंग में नेत्रों की भूमिका पर प्रकाश डाल रहे हैं।
(iv) दोनों दोहों में बिहारी लाल ने अपने प्रिय अलंकार सांगरूपक को आधार बनाकर अपनी बात कही है।
11.
कौन सुनै, कासौं कहौं, सुरति विसारी नाह।
बदाबदी ज्यौं लेत हैं, ए बदरा बदराह॥
कठिन शब्दार्थ-कासौं = किससे। सुरति = स्मृति, याद। बिसारी = भुला दी। नाह = नाथ, पति। बदाबदी = जान-बूझकर तंग करने को। ज्यौं = जैसे, मानो। बदरा = बादल। बदराह = कुमार्गी, बदला लेने का इच्छुक।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक अपरा में संकलित बिहारी के दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में एक विरहिणी वर्षा ऋतु में अपनी बढ़ी हुई विरह-वेदना सुना रही है। व्याख्या-विरहिणी दुखी होकर कह रही है कि उसकी पीड़ा को सुनने और समझने वाला कोई नहीं है। जिसे सुनना और समझना था, उस मेरे प्रिय ने मुझे भुला दिया है। तभी तो यह कुमार्गी अर्थात् अनुचित दिशा में आने वाला बादल, मुझ से जान-बूझकर बदला ले रहा है।
विशेष-
(i) एक तो बेचारी वियोगिनी अपने स्वामी के द्वारा भुला दिए जाने से पहले ही बहुत दुखी है, दूसरे वर्षा ऋतु का बहाना लेकर आ पहुँचा बादल उसे और भी प्रिय की याद दिलाकर उससे न जाने किस बात का बदला ले रहा है ?
(ii) बदाबदी’ और ‘बदराह’ शब्दों के प्रयोग से कथन बहुत मार्मिक हो गया है।
(iii) घियोग श्रृंगार का ऐसा सहज और हृदयस्पर्शी चित्रण बिहारी लाल की रचनाओं में कम ही मिलता है।
12.
कुटिल अलक छुटि परतमुख, बढ़िगौ इतौ उदोतु।
बंक बकारी देत ज्यौं, दामु रुपैया होतु॥
कठिन शब्दार्थ-कुटिल= टेढ़ा, सुँघराला। अलक = बालों की लट। छुटि = छूटकर, लटक कर। परत मुख = मुख पर पड़ने पर, मुख पर लटकने पर। बढ़िगौ = बढ़ गया। इतौ = इतना। उदोतु = चमक, शोभा। बंक = तिरछा, टेढ़ा। बकारी = रुपये के बराबर मूल्यसूचक चिह्न। देत ही = लगाते ही, अंकित करते ही। दामु = दमड़ी, बहुत कम मूल्य वाला पुराने समय का सिक्का। होतु = हो जाता है।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी लाल के दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि ने मुँघराली लट के मुख पर लटकने का चमत्कार दिखाया है।
व्याख्या-कवि किसी सुन्दरी के मुख पर लटक आई घंघराली लट को देखकर कहता है कि इस लट के मुख पर लटकने से इसे स्त्री के मुख की शोभा उसी प्रकार इतनी बढ़ गई है जैसे बकारी नामक तिरछा चिह्न लगाते ही दमड़ी का मूल्य रुपए के बराबर हो जाता
विशेष-
(i) लट भी टेढ़ी है और बकारी भी टेढ़ी या तिरछी होती है। लट से मुख की शोभा अत्यन्त बढ़ जाती है और बकारी चिह्न लगाते ही दमड़ी का मूल्य सैकड़ों गुना हो जाता है।
(ii) पहले रुपए में चौंसठ (64) पैसे हुआ करते थे और एक पैसा आठ दमड़ी के बराबर होता था।
(iii) धुंघराली लट से सुन्दरता बढ़ने का, अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन हुआ है।
(iv) ‘बंक बकारी’ में अनुप्रास अलंकार है तथा पूरे दोहे में अतिशयोक्ति अलंकार है।
13.
रह्यौ ऐचि अंतु न लहै, अवधि-दुसासनु बीरु।
आली, बाढ़तु विरह ज्यौं, पांचाली कौ चीरु॥
कठिन शब्दार्थ-रह्यौ ऐंचि = खींच रहा है। अंतुन = अंत नहीं। लहै = पाला है। अवधि-दुसासन = अवधिरूपी दुःशासन। बीरु = सखी, सहेली। आली = सखी। बाढ़तु = बढ़ता जा रहा है। पांचाली = द्रौपदी। चीर = वस्त्र, साड़ी। प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित बिहारी लाल के दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में विरहिणी अपने वियोग की अवधि को द्रौपदी के चीर के समान कभी समाप्त न होने वाला बता रही है।
व्याख्या-विरहिणी कह रही है-हे सखि ! लगता है मेरे वियोग की अवधि (अंत) कभी समाप्त न होगी। यह विरह तो द्रौपदी के चीर की भाँति बढ़ता ही जा रहा है। जो कौरवों की राजसभा में दु:शासन द्रौपदी को वस्त्रहीन कर देने को उसकी साड़ी को खींचे जा रहा था किन्तु वह समाप्त ही नहीं हो रही थी, उसी प्रकार प्रियतम के लौटने की अवधि भी बीतने में नहीं आ रही। इस अवधि के साथ मेरा विरह भी बढ़ता ही चला जा रहा है।
विशेष-
(i) विरह के बढ़ने पर अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है।
(ii) ‘अवधि-दुसासन’ में रूपक तथा ‘बाढ़तु बिरह ज्यौं पांचली कौ चीरु’ में उपमा अलंकार है।
(iii) ब्रज भाषा के मौलिक स्वरूप के दर्शन हो रहे हैं।
(iv) ‘द्रौपदी का चीर होना’ मुहावरा कथन को आकर्षक बना रहा है।
14.
दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़े दुख-दंदु।
अधिक अँधेरौ जग करत, मिलि मावस रवि-चंदु॥
कठिन शब्दार्थ-दुसह = असहनीय, कष्टदायक। दुराज = बुरा राज, दो राजाओं का राज। प्रजानु कौ = लोगों का, प्रजा का। दुख-दंदु = कष्ट और झंझट आदि। मावस = अमावस्या तिथि। रवि-चंदु = सूर्य और चन्द्रमा।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कविवर बिहारी द्वारा रचित दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि ने ‘दुराज’ में प्रजा के कष्ट पाने का सप्रमाण वर्णन किया है।
व्याख्या–कवि कहता है जहाँ राज्य व्यवस्था में दो शासकों का हस्तक्षेप होगा, वहाँ प्रजा का कष्ट पाना और झगड़े-झंझटों में पड़ना स्वाभाविक होता है। प्रकृति इसका प्रत्यक्ष प्रमाण दे रही है। अमावस को दो प्रकाशकर्ता राजा मिलकर राज करते हैं। सूर्य दिन में प्रकाश करने वाला है और चन्द्रमा रात में प्रकाश करता है। इस प्रकार तो अमावस को दूना प्रकाश होना चाहिए लेकिन होता इसके विपरीत है। सूर्य और चन्द्र के एक राशि में आ जाने से दुगने प्रकाश के स्थान पर घोर अंधकार छा जाता है। यही ‘दुराज’ का दुष्परिणाम है।
विशेष-
(i) एक प्राकृतिक घटना के माध्यम से कवि ने शासकों को सावधान किया है कि प्रजा का हित ही राजा के लिए सर्वोपरि होना चाहिए। आपसी पारिवारिक मतभेदों को शासन व्यवस्था में बाधक नहीं बनने देना चाहिए।
(ii) कवि ने दोहे के माध्यम से नीति का संदेश दिया है।
(iii) ‘दुसह दुराज’, ‘दुख-दंदु’ ‘अधिक अँधेरौ’ तथा ‘मिलि मावस’ में ‘अनुप्रास’ अलंकार है। पूरे दोहे में ‘दृष्टान्त’ अलंकार
(iv) प्रस्तुत दोहे से कवि बिहारी के ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान का परिचय प्राप्त होता है।
15.
तिय कित कमनैती पढ़ी, बिनु जिहि भौंह कमान।
चलचित-बेझै चुकति नहिं, बंकबिलोकनि-बान॥
कठिन शब्दार्थ-तिय = युवती। कित = कहाँ। कमनैती = धनुर्विद्या, बाण चलाने की कुशलता। पढ़ी = सीखी। बिनु = बिना। जिहि = धनुष की डोरी। भौंह-कमान = भौंहों रूपी धनुष। चलचित = मन चंचल होते हुए भी। बेझै = वेधने में, बाण मारने में। चुकति = चूकती। नहिं = नहीं। बंक विलोकनि = तिरछी दृष्टि। बान = बाण।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी रचित दोहों से उधृत है। इस दोहे में कवि ने, तिरछी दृष्टि के अचूक बाण चलाने वाली धनुर्विद्या में अति कुशल सुन्दरी का वर्णन किया है। व्याख्या-कवि युवती से प्रश्न करता है-हे सुन्दरी ! तुमने ऐसी अद्भुत धनुर्विद्या कहाँ सीखी है ? तुम तो बिना डोरी वाले भौंहों के धनुष पर तिरछी दृष्टि से बाण चढ़ाकर चंचल मन से भी अचूक निशाना लगाती हो; अथवा चंचल चित्त वाले, रसिक युवाओं के हृदयों को वेध देती हो।।
विशेष-
(i) कवि ने इस दोहे में विरोधाभास अलंकार का चमत्कार दिखाया है। बिना डोरी वाले भौंहों के धनुष से तिरछी दृष्टि के बाणों द्वारा, अस्थिर चित्त से, अचूक निशाना लगाया जाना, असम्भव प्रतीत होता है, किन्तु कवि ने अपने उक्ति चातुर्य से इसे सम्भव कर दिखाया है।
(ii) बिना डोरी के धनुष पर बाण चलाया ही नहीं जा सकता, अचूक निशाना लगाने को चित्त का एकाग्र होना अति आवश्यक है। दृष्टि तिरछी रहेगी तो कभी भी निशाना सही नहीं बैठेगा। लक्षणा शब्द-शक्ति का प्रयोग, इन सभी बातों का समाधान कर रहा है।
(iii) ‘कित कमनैती’ तथा ‘बंक विलोकनि बान’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) रीतिकालीन कविता की विशेषता-चमत्कार प्रदर्शन-का बिहारी पूरा उपयोग कर रहे हैं।
16.
आड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेह-बस, सखी सबै ढिंग जाति॥
कठिन शब्दार्थ-आड़े दै= आड़ लेकर, सामने करके। आले = भीगे हुए, गीले। बसन = वस्त्र। साहसु ककै = बड़ा साहस जुटाकर। सनेह-बस = स्नेह होने के कारण (ही)। ढिंग = समीप। जाति = जाती हैं।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी लाल द्वारा रचित दोहों से उद्धृत है। इस दोहे में कवि ने एक रीतिकालीन विरहिणी के शरीर के ताप का तमाशा दिखाया है।
व्याख्या-एक विरहिणी नारी विरह के असहनीय ताप से तप रही है। उसकी सखियाँ प्रेमवश उसे सांत्वना देने के लिए उसके समीप जाना चाहती हैं, किन्तु उसके शरीर के ताप के कारण जाड़े की अति शीतल रात में भी सखियाँ, भीगे हुए वस्त्रों की आड़ लेकर और बड़ा साहस जुटाकर उसके पास जा पा रही हैं।।
विशेष-
(i) यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि विरहिणी सखियाँ बड़ा सहास बटोरकर और गीले कपड़े की आड़ लेकर, उसके पास जा पा रही हैं और जाड़ों की बड़ी ठंडी रात है। ऐसे में उसके शरीर के ताप का जब यह हाल है, तो अब तक वह बिना जले कैसे जीवित बची हुई है। उसे तो इतने ताप पर जलकर भस्म हो जाना चाहिए था। यह सब कवि बिहारी लाल के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन का कमाल है।
(ii) दोहा रीतिकालीन अत्युक्तिपूर्ण वर्णन-शैली (किसी बात का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाना) का एक अच्छा नमूना कहा जा सकता है।
(iii) सनेह-बस सखी सबै’ में अनुप्रास अलंकार है। पूरे दोहे में अतिशयोक्ति अलंकार है, कवि ने विरहिणी के ताप का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है।
17.
कौड़ा आँसू-बूंद, कसि सॉकर बरुनी सजल।
कीने बदन निर्मूद, दृग-मलिंग डारे रहत॥
कठिन शब्दार्थ-कौड़ा = बड़ी कौड़ी। कसि = कसकर। साँकर = सांकल, जंजीर। बरूनी = पलकों की बरौनियाँ, पलकों के रोंये। सजल = भीगी हुई। बदन = मुख। निर्मूद = मुँदा हुआ, बंद। दृग = नेत्र। मलिंग = मलिंग या मलंग नामक फकीर जो ध्यान में मस्त से रहते हैं।
प्रसंग तथा संदर्भ-प्रस्तुत सोरठा हमारी पाठ्य-पुस्तक अपरा में संकलित कवि बिहारी द्वारा रचित दोहों से लिया गया है। इस सोरठे में कवि ने विरहिणी के आँसुओं से भीगे और झुके हुए नेत्रों की तुलना मलंग फकीर से की है।
व्याख्या-कवि कहता है कि इस विरहिणी के नेत्र मलंग फकीर हैं। मलंग द्वारा धारण किया जाने वाला कौड़ा (बड़ी कौड़ी) इन से टपकने वाले आँसू हैं और मलंग द्वारा कसी हुई साँकल, इनकी आँसुओं से भीगी हुई बरौनियाँ हैं। मलंग की ही भाँति ये नेत्र भी मुख बंद किए रहते हैं और नीचे को झुके रहते हैं।
विशेष-
(i) नेत्रों पर मलंग के स्वरूप का आरोप है।
(ii) सोरठे में रूपक तथा सांगरूपक अलंकार हैं।
(iii) इस सोरठे में भी कवि ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया है, किन्तु इस प्रयास से स्पष्ट अर्थ ग्रहण में कुछ बाधा आ रही